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Sunday, 28 July 2019

काश के वन

करूं लाख जतन, उग आते है, काश के वन!

ललचाए मन, अनचाहे से ये काश के वन,
विस्तृत घने, अपरिमित काश के वन,
पथ भटकाए, मन भरमाए, ये दूर कहीं ले जाए!
"काश! ऐसा होता" मुझसे ही कहलाए,
कैसा है मन, क्यूं उग आते है, काश के वन!

कब होता है सब वैसा, चाहे जैसा ये मन,
वश में नही होते, ये आकाश, ये घन,
मुड़ जाए कहीं, उड़ जाए कहीं, पड़ जाए कहीं!
सोचें कितना कुछ, हो जाता है कुछ,
उग आते हैं मन में, फिर ये, काश के वन!

बदली है कहाँ, लकीरें इन हाथों की यहाँ,
अपनी ही साँसें, कोई गिनता है कहाँ,
विधि का लेखा, है किसने देखा, किसने जाना!
साँसों की लय का, अपना ही ताना,
संशय में, उग आते हैं बस, काश के वन!

काश! दिग्भ्रमित न करते, ये काश के वन,
दिग्दर्शक बन उगते, ये काश के वन,
होता फिर बिल्कुल वैसा, कहता जैसा ये मन!
न पछताते, न हाथों को मलते हम,
न उगते, न ही भटकाते, ये काश के वन!

करूं लाख जतन, उग आते है, काश के वन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 27 September 2018

मन के आवेग

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

गम के क्षण, मन सह जाता है,
दुष्कर पल में, बह जाता है,
तुषारापात, झेल कर आवेगों के,
विकल हो जाता है.....

मन कोशों दूर निकल जाता है,
फिर वापस मुड़ आता है,
बंधकर आवेगों में, रम जाता है,
वहीं ठहर जाता है...

प्रवाह प्रबल मन के आवेगों में,
कहीं दूर बहा ले जाता है,
कण-कण प्लावित कर जाता है,
बेवश कर जाता है....

गर वश होता इन आवेगों पर,
धीर जरा मन को आता,
खुद को ले जाता निर्जन वन में,
चैन जहाँ रमता है...

आवेग कई रमते इस छोटे से मन में,
जैसे बूँदें, बंदी हों घन में....

Thursday, 24 March 2016

ये क्या कह गया तुमसे नशे में

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

जाम महुए की पिला दी थी किसी नें,
उस पर धतूरे की भंग मिलाई थी किसी ने,
मुस्कुराकर शाम शबनमी बना दी थी आप ने,
उड़ गए थे होश मेरे, मन कहाँ रह गया था वश में।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

यूँ तो मैं पीता नही जाम हसरतों के,
पिला दी थी दोस्तों नें कई जाम फुरकतों के,
मुस्कुराए आप जो छलके थे जाम यूँ ही लबों पे,
होश में हम थे कहाँ, देखकर आपको सामने।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

ये दो नैन मयखाने से लग रहे आपके,
जाम कई हसरतों के छलकाए है यूँ आपने,
लड़खड़ाए मेरे कदम आपकी मुस्कुराहटों में,
उड़ चुके हैं होश मेरे, मन विवश आपके सामने।

ओह! आज मैं ये क्या कह गया तुमसे नशे में?

Monday, 14 March 2016

मुझे रोक लेना मेरे वश में नहीं

तुम ही तुम हर पल एहसास सी,
ज़िक्र क्यों हर पल तेरा मेरी यादों में,
आसान नहीं ये समझ पाना,
मान लो तुम इसे खुदा कि मर्जी,
मेरी यादों को रोक लेना मेरे वश में नहीं।

तूम इक एहसास सी बनकर मुझमें,
फुरक़त-ए-एहसास अनोखी तेरी बातों में,
बंधन के वे स्वर भूल जाना मुमकिन नहीं,
रोक लूं खुद को मैं कैसे तुम्हें चाहने से,
मेरी चाहत को रोक लेना मेरे वश में नहीं ।

इसे इत्तफ़ाक़ कहो या फिर मेरी नादानी.....

बड़े बेनूर से पड़े थे मेरे एहसास,
रौनक ए एहसास आपके आने से आई,
खोया हूँ उस तसव्वुर-ए-मदहोशी में,
मुमकिन नहीं अब होश में आना,
हाँ ....! हाँ, कतई मुमकिन नहीं......!
मेरी मदहोशी को रोक लेना मेरे वश में नहीं ।