Monday 10 January 2022

इक जाम

जाने, ज़िन्दगी की, कब शाम हो जाए,
चलो ना, इक जाम हो जाए!

छलकने लगी हैं, किरणें सुबह की, नदी पर,
हँसने लगी, कुछ सजने लगी, जिन्दगी,
बादलों की ओट से, कुछ कहने लगी रौशनी,
सो चुका, अब अंधेरा,
छँट चला, निराशाओं का वो पहर,
दोपहर की धूप तक, बातें तमाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

सुन जरा, कलकल बहती नदी ने क्या कहा,
बहती रही मैं, उन अंधेरों के मध्य भी,
मचलकर, गाती रही, राह के ठोकरों संग भी,
निरन्तर, प्रवाह मेरा,
ले ही आया, आशाओं का शहर,
पहले, उन पर्वतों को इक सलाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

सुख-दुख तो हैं, दो किनारे इस ज़िन्दगी के,
बेफिकर, बस गीत गा तू बन्दगी के,
दोनों तरफ, छोड़ जाती इक निशानी जिंदगी,
रख कर, इक सवेरा,
देकर, उम्मीदों का ये नव-सफर,
कहती, फिर, सुहानी इक शाम हो जाए,
चलो, इक जाम हो जाए!

जाने, ज़िन्दगी की, कब शाम हो जाए,
चलो ना, इक जाम हो जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 8 January 2022

अपनी ही धुन

बड़ा ही, संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही धुन चला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
पलकों तले, रुक ना जाए ये सफर,
खत्म हो सिलसिला!

अनसुने से, धड़कनों के, गीत कितने,
बाट जोहे, बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
उन सबको, पहले लूं बुला,
चले, फिर काफिला!

शायद, मुझको संजोए, यादों में कोई,
बैठी कहीं, ख्यालों में खोई,
बुलाए मुझको, हरपल सपनों में कोई,
मीत वो ही, कोई ढ़ूंढ़ ला,
बढ़े, फिर काफिला!

जरा मैं, समझ लूं, हवाओं के इशारे,
सुन लूं धड़कनों के गीत सारे,
गूंज कर वादियाँ, मुझको क्यूं पुकारे,
यूं, रह जाए न कोई गिला,
चले, फिर काफिला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
कहीं अनमना, ना हो चले सफर,
खत्म हो सिलसिला!

बड़ा ही, संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही धुन चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 7 January 2022

मौसम

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

झांक कर गुम हुई, इन खिड़कियों से रौशनी,
लौट कर, दोबारा फिर न आईं,
दिन यूं ढ़ला, ज्यूं हों, रातें इक सुरंग सी,
धूप थी, पर उजाले कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

छूकर किनारों को, गुजर जाती थी धार इक,
यकायक, रुख ही, बदल चुकी,
बेसहारे, निहारे दूर अब भी वो किनारे,
शबनम भरे, किनारे कितने नम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

टीस बनकर, चुभती रही, सर्द सी इक पवन,
पले, एहसास कहां अब गर्म से,
उड़ा कर ले चली, कहीं वो ही पुरवाई,
उस ओर, जिधर तुम थे न हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

बदले हैं मौसम, बदले तराने, बदली सी धुन,
गुम हुई, पायलों की वो रुनझुन,
सुर बिन, कैसे खिले मन के ये वीराने,
इस धुन में, संगीत कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 2 January 2022

अनुगूंज

रह-रह कर, झकझोरती रही, इक अनुगूंज,
लौटकर, आती रही इक प्रतिध्वनि, 
शायद, जीवित थी, कहीं एक प्रत्याशा,
किसी के, पुनः अनुगमन की आशा!

पर कैसा, ये गूंजन! कैसा, ह्रदय का कंपन,
असह्य हो रहा, क्यूं ये अनुगूंजन?
शायद, टूट रही थी, झूठी सी प्रत्याशा,
किसी कंपित मन की थी वो भाषा!

युग बीते, वर्षो बीते, अंबर रीते, वो न आए,
हर आहट पर, इक मन, भरमाए,
रूठा, उससे ही, उसका भाग्य जरा सा,
इक बदली, सावन में ज्यूं ठहरा सा!

यूं, बीच भंवर, बहती नैय्या, ना छोड़े कोई,
यूं, विश्वास, कभी, ना तोड़े कोई,
होता है, भंगूर बड़ा ही, मन का शीशा,
पल में चकनाचूर होता है ये शीशा!

टूटकर, इक पर्वत को भी, ढ़हता सा पाया,
जब, अंतःकरण जरा डगमगाया,
असंख्य खंड, कर दे, कम्पन थोड़ा सा,
दे दर्द असह्य, ये चुभन हल्का सा!

पल-पल, झकझोरती उसकी ही अनुगूंज,
पग-पग, टोकती वही प्रतिध्वनि,
सुन ओ पथिक, जरा समझ वो भाषा,
कर दे पूरी, उस मन की प्रत्याशा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 31 December 2021

वर्षान्त

मन जरा सा, अशान्त हो चला था,
उधर, वर्षान्त हो चला था!

शिखर, दूर था अभी,
मुकर सी गई थी, राह सारी अजनबी,
छूटने लगी थी, वक्त की, कड़ी,
तलाशता, खुद को मैं,
राह में खड़ा था!

मन जरा सा, अशान्त हो चला था,
उधर, वर्षान्त हो चला था!

बेफिक्र, ढ़ला था दिन,
यूं ही, चाल वक्त की, मैं रहा था गिन,
जबकि, ढ़ल चली थी रात भी,
थे, वो सितारे बेखबर,
मुग्ध मैं पड़ा था!

मन जरा सा, अशान्त हो चला था,
उधर, वर्षान्त हो चला था!

घाटियों सा, ये सफर,
फिर, करनी थी शुरु, संकरी राह पर,
थे कहां, कल के वो हमसफ़र,
उन, बेड़ियों से भला,
मुक्त मैं कहां था!

मन जरा सा, अशान्त हो चला था,
उधर, वर्षान्त हो चला था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 25 December 2021

निरंतर, एक वर्ष और

निरुत्तर करती रही, उसकी निरंतरता!
यूं वर्ष, एक और बीता,
बिन थके, परस्पर बढ़ चले कदम,
शून्य में, किसी गंतव्य की ओर,
बिना, कोई ठौर!
निरंतर, एक वर्ष और!

प्रारम्भ कहां, अन्त कहां, किसे पता?
यह युग, कितना बीता,
रख कर, कितने जख्मों पे मरहम,
गहन निराशा के, कितने मोड़,
सारे, पीछे छोड़!
निरंतर, एक वर्ष और!

ढ़ूंढ़े सब, पंछी की, कलरव का पता?
पानी का, बहता सोता,
जागे से, बहती नदियों का संगम,
सागर के तट, लहरों का शोर,
गुंजित, इक मोड़!
निरंतर, एक वर्ष और!

निरुत्तर मैं खड़ा, यूं बस रहा देखता!
ज्यूं, भ्रमित कोई श्रोता,
सुनता हो, उन झरनों की सरगम,
तकता हो इक टक उस ओर,
अति-रंजित, छोर!
निरंतर, एक वर्ष और!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 December 2021

आईना

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

वक्त की, खुली सी है ये विसात,
शह दे, या, कभी दे ये मात,
इस वक्त से, यूं न जीत पाओगे,
कभी हारकर भी, ये बाजी, जीत जाओगे!

दिन-ब-दिन, ढ़ल रहा, ये वक्त,
राह भर, ये मांगती है रक्त,
धार, वक्त के, ना मोड़ पाओगे,
रहगुजर, इस वक्त को ही, तुम बनाओगे!

छल जाएगा, कल ये आईना,
बदल जाएगा, ये आईना,
छवि, इक, अलग ही पाओगे,
वक्त की विसात पर, यूं ढ़ल ही जाओगे!

उसी शून्य में, कभी झांकना, 
कल का, वो ही आईना,
वक्त के वो पल, कैद पाओगे,
वो आईना, चाहकर भी न तोड़ पाओगे!

वक्त संग, तुम ढ़ल ही जाओगे,
कब तलक, आईनों में, खुद को छुपाओगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 22 December 2021

चादर

किसने बिछा दी, एक कोहरे की, चादर?
और तान दी, उस पर, जरा सी धूप,
सिकुड़ता हुआ, वक्त का रुका ये लम्हा,
कांपता सा, बदन लिए,
भला, जाए किधर!

बस, सोचता रहा, खुद को खोजता रहा!
कुरेदता रहा, वो कोहरा सा चादर,
कि, छू ले, वो धुंधली धूप जरा आकर,
जमा सा, ये बंधा लम्हा,
थोड़ा, जाए बिखर!

मगर, वो धूप, बदल कर, कितने ही रूप!
हँसता रहा, चादरों में सिमट कर,
बीतता रहा, वक्त संग, बंधा हर लम्हा,
मींच कर, खुली पलकें,
जागा, वो रात भर!

किसने बिछा दी, एक कोहरे की, चादर?
और जगा दी, अजीब सी कशिश,
अन्दर ही अन्दर, जगी सी इक चुभन,
बहकी-बहकी ये पवन,
अब, जाए किधर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 13 December 2021

बिखरे हर्फ

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, संवेदनाओं में पिरोए शब्द,
नयन के, बहते नीर में भिगोए ताम्र-पत्र,
उलझे, गेसुओं से बिखरे हर्फ,
बयां करते हैं, दर्द!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, गहराती सी, हल्की स्पंदन,
अन्तर्मन तक बींधती, शब्दों की छुवन,
कविताओं से, उठता कराह,
ये, कवि की, आह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, नृत्य करते, खनकते क्षण,
समेटे हुए हों बांध कर, पंक्तियों में चंद,
बदलकर वेदना भी रूप कोई,
कह रही अब, वाह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

मानता हूं, रवि से आगे कवि,
हमेशा, कल्पनाओं से आगे, भागे कवि,
खुद भी जागे, सबकी जगाए,
सोई पड़ी, संवेदनाएं!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

बेवाक, ख्यालों का विचरना,
खगों का, मुक्ताकाश पे बेखौफ उड़ना,
शीष पर, पर्वतों के डोलना,
कवि की, ये साधना!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 December 2021

मैं प्रशंसक

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

ठगा सा मैं रहूं, ताकूं, उसे ही निहारूं,
ओढ़ लूं, रुपहली धूप वो ही,
जी भर, देख लूं, 
पल-पल, बदलता, इक रूप वो ही,
हो चला, उसी का मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

समेट लूं, नैनों में, उसी की इक छटा,
उमर आई, है कैसी ये घटा!
मन में, उतार लूं,
उधार लूं, उस रुप की इक कल्पना,
अद्भुत श्रृंगार का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

बांध पाऊं, तो उसे, शब्दों में बांध लूं,
लफ़्ज़ों में, उसको पिरो लूं,
प्रकल्प, साकार लूं,
उस क्षितिज पर बिखरता, रंग वो,
उसी तस्वीर का, मैं प्रशंसक,
कह भी दूं, मैं कैसे!

वो, सर्दियों में, गुनगुनी सी धूप जैसे,
पिघलती सांझ सी, रूप वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)