मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!
निशा थी, गुम हर दिशा थी,
कहीं बादलों में, छुपी कहकशाँ थी,
न कोई कारवाँ, न कोई निशां,
कोई स्याह रातों से पूछे,
वो गुजरा था कैसे!
मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!
घुलती हुई, पिघलती फिजां,
फिसलन लिए, भीगी थी राहें वहाँ,
आसां न था, खुद को बचाना,
कोई सर्द आहों से पूछे,
वो कहरा था कैसे!
मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!
हलचल सी, रहती प्रतिपल,
वो बेचैन, कहीं ठहरता न इक पल,
ना ठौर कोई, ना ही ठिकाना,
कोई उन ख्यालों से पूछे,
वो ठहरा था कैसे!
मन की गगन पे, वो उतरा था कैसे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteकरवाचौथ की बधाई हो।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.11.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सादर आभार आदरणीय
Deleteमन के गगन पे, वो उतरा था कैसे!
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर सृजन।
शुक्रिया आभार आदरणीया कुसुम जी।
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