Showing posts with label बादल. Show all posts
Showing posts with label बादल. Show all posts

Wednesday 11 May 2016

मुझसे मिली जिन्दगी

उस झील सी आँखों में अब तैरती ये जिन्दगी।

जिन्दगी अभ्र पर ही थी मेरी कहीं,
आज मुझसे आकर मिली झूमती वो वहीं,
नूर आँखों मे लिए वही दिलकशीं,
कह रही मुझसे तू आ के मिल ले कहीं।

हँस पड़ी जिन्दगी पल भर को मेरी,
बन्द लब्जों से ही करने लगी वो बातें कईं,
रंग होठों पे लिए फिर वही शबनमी,
कह रही जिन्दगी तू रोज आ के मिल कहीं।

मैं दिखा उन लकीरों में ही बंद कही,
उनकी हाथों में जब लकीरें असंख्य दिखीं,
स्नेह पलकों पे लिए हाथ वो पसारती,
कहने लगी जिन्दगी दूर मुझसे जाना नहीं।

उस अभ्र पर बादलों में अब तैरती ये जिन्दगी।

Sunday 8 May 2016

बेकरारियाँ

अब कहाँ दिखते हैं वो बेकरारियाें के पल,
जाम हसरतों के लिए कभी दूर वो जाते थे निकल,
क्या रंग बदले हैं मौसम ने, अब वो भी गए हैं बदल?

पल वो मचलता था उन बेकरारियों के संग,
अंगड़ाईयाँ लेती थी करवटें उनकी यादों के संग,
अब बिखरा है वो पल कहीं, क्या वो भी रहे हैं बिखर?

सुलग रही चिंगारियाँ, हसरतों के लगे हैं पर,
जल रही आज बेकरारियाँ, पर वो तो हैं बेखबर,
हम तो वो मौसम नहीं, यहाँ रोज ही जाते है जो बदल!

क्या अब भी है वहाँ बेकरारियाें के बादल?
सोंचता है ये बेकरार दिल आज फिर होके विकल!
भले रंग बदले हैं मौसमों ने, नेह नही सकता है बदल!

Saturday 7 May 2016

अभ्र पर शहर की

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता,
अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा,
वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा,
रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता,
छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता,
बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना,
खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

अभ्र = आकाश,
वारिद, अम्बुद=मेघ
विहंग=पक्षी

Tuesday 3 May 2016

मेरा एकान्त मन


मेरा मन,
जैसे एकान्त आकाश में उड़ता अकेला पतंग,
इन्तजार ये करता है किसका एकान्त में,
कब झाँक पाया है कोई मन के भीतर उस प्रांत में,
हर शाम यह सिमट आता खुद ही अपने आप में।

मेरा मन,
जैसे निर्जन वियावान में आवारा सा बादल,
बरस पड़ता है ये कहीं किसी जंगल में,
कब जान पाया है कोई क्या होता मन के आंगण में,
सावन के बूंदों सा भर आता है मन चुपचाप ये।

मेरा मन,
मत खेलना तुम कभी मेरे इस कोमल मन से,
अकेलेपन के सैकड़ों दबिश भी हैं इनमें,
कब पढ़ पाया है कोई मेरे मन के अन्दर की भाषा,
अब कौन दे दिलाशा इसे, चटका है कई बार ये।

मेरा एकान्त मन, मौन है किसी मूक बधिर सा ये।

Saturday 30 April 2016

किस गगन की ओर

ये खुला आसमाँ, पुकारता है अब किस गगन की ओर?
उड़ने लगे हैं जज्बातों के गुब्बारे आसमान में,
पंख पसारे उमरते अरमानों के रथ पर,
ये एहसास कैसे उठ रहे हैं अब इस ओर..............!

मन कब रुका है, उड़ चला ये अब उस गगन की ओर!
रुकने लगे हैं जज्बात ये मन के ये किस गाँव मे,
वो गाँव है क्या, उस नीले गगन की छाँव में,
छाँव वो ही ढूंढ़ता, मन ये मेरा उस ओर.......!

रोक लूँ मैं जज्बात को, क्युँ चला ये उस गगन की ओर,!
कोई थाम ले उन गुब्बारों को उड़ रहा है जो बेखबर,
क्युँ थिरकता बादलों में, लग न जाए उसको नजर,
वो उड़ रहा बेखबर, अब किस गगन की ओर.....!

धड़कनें बेताब कैसी, कह रहा चल उस गगन की ओर!

Wednesday 20 April 2016

लहराते गेसुओं संग

गेसुओं की काली लटों मे राज गहरे छुपे हैं कितने।

खुल के लहराए है ये,
किसके गेसु उन बादलों संग,
बिखर गई है जैसे खुश्बु,
हर तरफ इन हवाओं के संग,
जाल से बिछ रहे हैं,
अब यहाँ इन गेसुओं केे,
बंध रहा हर पल ये मन,
भीनी-भीनी उन गेसुओं संग।

खुल गए हैं राज गहरे, कितने ही इन गेसुओं के।

कुछ अलग ही बात है,
लहराते घनेरे से इन गेसुओं में,
उलझी हैं ये राहें तमाम,
घुँघरुओं सी इन गेसुओं में,
लट ये काले खिल रहे हैं,
इन बादलों संग उस ओट में,
बिखरे है हिजाब गेसुओं के,
मदहोशियों सी इन धड़कनों में।

उलझे हुए सब जाल में ही, इन शबनमी गेसुओं के।

Wednesday 13 April 2016

तुम भी गा देते

फिर छेड़े हैं गीत,
पंछियों नें उस डाल पर,
कलरव करती हैं,
मधु-स्वर में सरस ताल पर,
गीत कोई गा देते,
तुम भी,
जर्जर वीणा की इस तान पर।

डाली डाली अब,
झूम रही है उस उपवन के,
भीग रही हैं,
नव सरस राग में,
अन्त: चितवन के,
आँचल सा लहराते,
तुम भी,
स्वरलहर बन इस जीवन पर।

फिर खोले हैं,
कलियों ने धूँघट,
स्वर पंछी की सुनकर,
बाहें फैलाई हैं फलक नें
रूप बादलों का लेकर,
मखमली सा स्पर्श दे जाते,
तुम भी,
स्नेहमयी दामन अपने फैलाकर।

Tuesday 5 April 2016

आकृति

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

कहीं खयालों में उभरी है इक तस्वीर,
कुछ धुंधली सी अबतक मानस पटल पर अंकित,
ठहरे झील में नजर आई थी वो मुस्काती,
लहर ये कैसी? कही गुम हुई वो झिलमिल आकृति।

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

नभ पर घटाओं में उभरी है वो तस्वीर,
पल पल रूप बदलती चंचल बादलों में मुस्काती,
लट काले घुँघराले ठिठोली बूँदों संग वो करती,
हवा ये कैसी? कही गुम हुई बिखरी नभ में वो आकृति।

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

मन के सूने महल में अंकित वो तस्वीर,
खाली घर की दीवारों पर उभर आती वो रंगों सी,
स्नेहिल पलकों से अपलक वो निहारती,
आहट ये कैसी? कही गुम हुई नजरों में वो आकृति!

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

Wednesday 30 March 2016

मलिन हुआ वो धवल चाँद

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

वो धवल चाँद मलिन सा दिख रहा,
प्रखर आभा बिखेरती थी जो रात को,
जा छुपा घने बादलों की ओट में वो,
क्या शर्म से सिमट रही है चाँद वो?

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

किसी अमावस की उसको लगी नजर,
धवल किरणें उसकी छुप रही हैं रात को,
निहारता प्यासा चकोर नभ की ओर,
क्या ग्रहण लग गई है उस चाँद को?

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

सिमट रही कुम्हलाई सी वो बादलों में,
पूंज किरणों की बिखर गई है आकाश में,
अंधकार बादलों के छट गए हैं साथ में,
क्या नभ प्रेम में डूबी हुई है चाँद वो?

आज रूठा हुआ क्युँ मुझसे मेरा चाँद वो?

Sunday 27 March 2016

प्रेयसी

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही स्वप्निल झील सी नीली आँखें,
मदमाई अलसाई झुकी हुई सी पलकें,
काले-काले इन नैनों में नींद के पहरे,
जिक्र बादलों का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही होठ अधखुले दो पंखुड़ियाँ से,
लरजते, कांपते, शबनम की बूंदों में डूबे,
लालिमा इन पर सूरज की किरणों के,
जिक्र गुलाब का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही चेहरा चांदनी में धुला आभामय,
हसीन नूर सा रेशमी अक्श मुख पर लिए,
अक्श रुहानी जैसे दीप जली मन्दिर में,
जिक्र पूजा का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

Tuesday 22 March 2016

एहसास एक गहराता हर पल

एहसास एक गहराता हर पल,
निर्जन तालाब में जैसे ठहरा शांत जल,
खामोशी टूटती तभी जब फेकता कोई कंकड़।

कभी कभी ये एहसास उठते मचल,
वियावान व्योम मे जैसे घुमरता मंडराता बादल,
खामोशी टूटती है तभी जब लहराता उसका आँचल।

एहसासों के पर कभी आते निकल,
तेज हवा के झौंकों मे जैसे पत्तियों के स्वर,
खामोशी टूटती है तभी जब छा जाता है पतझड़।

आशाएँ एहसास की कितनी विकल,
सपनों की नई दुनियाँ मे रोज ही आता निकल,
खामोशी टूटती है तभी जब बिखरते सपनों के शकल।

एहसास एक गहराता हर पल........,!

Friday 5 February 2016

मैं मगन घन-व्योम प्रेम मे!

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का नैसर्गिक धरा प्रेम,
आश्वस्त अन्तर्धान मैं मादकता मे घन की,
मुझको विश्वास उसकी चंचलता में,
चपल रहकर हर पल अविरल,
छाँव ठंढ़क की देता धरा को कम से कम दो पल!
मूक संसृति बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का गूँजित सृष्टि प्रेम,
गूँजते हैं कान मेरे जब-जब गूँचते हैं घन,
सृष्टि को विश्वास उसकी झंकृत गूँज मे,
आच्छादित घनन घनघोर अतिघन,
वृष्टि कर जल प्लावित करते धरा को कम से कम!
घनघोर गर्जन बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का आलोकित व्योम प्रेम,
धधकते हैं प्राण मेरे जब कड़कते हैं घन,
व्योम को विश्वास उसकी तड़ित वेदना में,
रह रहकर सिहर उठते घन उसपल,
जलकर मौन संताप दूर करते व्योम का कम से कम!
तड़प जलन बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

Saturday 23 January 2016

बादल की वेदना

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की मौन वेदना,
कौन समझ पाया है इस जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
कड़क बिजली ज्यूँ चीख पीड़ा की।

तपती धरा की जल राशि लेकर,
 स्वनिर्माण स्वयं की करता,
मौन धरा की तपिस देख फिर आँसू बरसाता,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

मौन धरा की वेदना

चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरों की तेज हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
पश्चाताप किसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

विशाल हृदय धरा का,
खुद को निचोर सर्वस्व सागर को देता,
तपाकर खुद को रचना बादलों की करता,
चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

Tuesday 19 January 2016

बवंडर व्योम का

बवंडर सा आज उठ रहा व्योम मे क्युँ,
क्या खो गई है सहनशीलता व्योम की,
या फिर टूट गए इसके तार धीरज के।

रूह बादलों के आज काप उठे हैं क्युँ,
क्युँ अनन्त के हृदय मची चक्रवात सी,
नभ ने छोड़ दिए क्या हाथ धीरज के।

पाप व्योम में पसर गयी है पीड़ा बन ज्यों,
रो रहा मन व्योम का कोलाहल करता यूँ,
अश्रुवर्षा करते काले घन साथ नीरव के।

ये बवंडर व्योम के पीड़ा की प्रकटीकरण,
चक्रवात बादलो के व्यथा की स्पष्टीकरण,
चलने दे आँधियाँ कुछ तम छटे जीवन की।

Monday 18 January 2016

टूटा हृदय

अश्रुओं की अविरल मुक्त धार से अपनी,
अब क्युँ रोक रही हो राह उसकी?
मंडराते बादलों की तरह टूटा है हृदय उसका,
अश्रुबूँद क्या भर सकेंगे घाव उसकी?

टूटा हृदय बादलों सा नभ में व्याकुल मंडराता,
गर्जना कर व्यथा अपनी सबको सुनाता,
चीर जाती पीड़ा उसकी हृदय व्योम के भी,
निष्ठुर तुझे न आयी क्या दया जरा भी?

अब व्यर्थ किसलिए तुम पश्चाताप करती,
आँसुओं के सैलाब क्युँ बरबाद करती,
प्यास हृदय की बुझ चुकी खुद की आँसुओं से ही,
शेष बरस रहे अब झमाझम बारिश की बुंदों सी।

Thursday 24 December 2015

तू चुपके से सुन इस पल की धुन

सुबह की पुरवाई मे घुली तेरी महक,
मेरी आँखों के गीले कोरों से,
मखमली ख्वाबों को चुनकर,
शाम ढ़़ले तन्हाई के एहसासों कों तजकर,
तू चुपके से सुन, इस पल की धुन,
दो दिलों की धड़कनें, मैं और तुम।

चांदनी सम तुम, शांत बादल सम मैं,
तुम बिखरो मुझपर मृदु चांदनी सम,
छा जाऊँ मैं तुमपर विस्तृत आकाश बन,
तुम हो जाओ चंचल निर्मल नदी सी,
सागर सा विस्तृत पूर्ण हो जाऊँ मैं।

नीलाभवर्ण बादलों में छिपी इन बूँदों सम,
वो सुरमयी ख़्वाब हैं, जो देखे हैं हमने तुम संग
अब कणों नें फिर छेड़े है वही धुन, 
चहुँ ओर है शांत सा कोलाहल,
कोयल भी है चुप सुनने को फिर से वही धुन,
तू चुपके से सुन, इस पल की धुन,
दो दिलों की धड़कनें, मैं और तुम।