Saturday, 23 January 2016

मौन धरा की वेदना

चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरों की तेज हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
पश्चाताप किसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

विशाल हृदय धरा का,
खुद को निचोर सर्वस्व सागर को देता,
तपाकर खुद को रचना बादलों की करता,
चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

8 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    २९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. आज की प्रस्तुति में मेरी विविध रचनाओं को एक जगह शामिल कर आपने मुझे विस्मित कर दिया है आदरणीया श्वेता जी। मेरे शौकिया लेखन को विशिष्टता प्रदान करने हेतु हृदयतल से आभारी हूँ।

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  2. प्रकृति के विभिन्न तत्वों का सुंदर मानवीकरण। अद्भुत रचना।

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    1. प्रेरक शब्दों हेतु आभारी हूँ आदरणीय मीना जी।

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  3. बहुत सुंदर गहरी मृम स्पर्शी रचना।

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