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Sunday, 24 July 2022

एकाकी ही भला


एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम, जो दे जाते हैं, वो मन के बंधन,
क्यूँ, बांध रहे, मुझसे हर क्षण,
ये गीत, न वो गाएंगे,
सर्वदा, मन को न तेरे बहलाएंगे,
न रखना, कोई गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

गम न, इक और, ले पाऊंगा सर्वथा,
रह न पाऊंगा, यूं संग सर्वदा,
न रख, यादों में कहीं,
रखना, पर, बीती बातों में कहीं,
जैसे कोई, कहीं मिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

क्यूं ठहर जाऊं, आंगन में किसी के,
क्यूं बना लूं, घर इक कहीं पे,
रेत जैसे हैं ख्वाब ये,
प्यास नजरों को हो, गर, दो घूंट,
अपनी, आंसू के पिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

हो बेहतर, रख ले मन पे एक पत्थर,
मत मांग, प्रश्नों के कोई उत्तर,
जो, हल न हो पाएंगे,
वो अन्तर्मन को और बींध जाएंगे,
यूं होगा, किसका भला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

उड़ा मत, आसमां पर, पंछी चाह के,
कल, रख न पाओगे बांध के,
वो, छल ही जाएंगे,
टूटे बांध जो, वो कल बंध न पाएंगे,
यूं होगा, खुद से गिला!

एकाकी खुश हूँ, मैं, एकाकी ही भला....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  ‌‌ (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 September 2021

वो तुम हो

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिलते रहे, क्षितिज की, लाली में सदा,
देकर, इक सिंदूरी सी सदा,
विरान मेरे आंगन में, रोज उतरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ, बहकाने को आएं, दशों दिशाएँ,
रस्ते कितने, दूर दिशाओं को ले जाएँ,
और, ले आते हो, तुम यहाँ,
यूँ अफसाने, सदियों के, लिखते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

उठते हो, भीनी सी ख़ुशबू बन के,
छलके, एहसासों संग, बूँदों में ढ़लके,
गहराई, सावन सी, पलकें,
उमंग कई, एहसासों मे, भरते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो।

यूँ तो सर्वथा, सर्वदा, हूँ तुझसे जुदा,
मिले भी कहीं, पल दो पल, यदा-कदा,
पर हो, एहसासों में, सर्वदा,
टुकड़े, मेरे ही टूटे पल के, चुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

संग मेरे, मेरे ही सपनों को, बुनते हो,
वो तुम हो, तुम ही हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 December 2020

सूना गगन

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

देखती हैं, तुझको ही ये चारो दिशाएँ,
झुक-झुक कर, क्षितिज पर, तुझको बुलाएं,
तारे हैं कई, पर विरान है गगन, 
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

कौन जाने, किस घड़ी, छा जाए घटा,
चमके बिजलियाँ, हो न, सुबह सी ये छटा,
घिर न जाए, तूफानों में, गगन,
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)