Tuesday, 31 August 2021

पीछे छूटा क्या

कोई, क्या जाने, पीछे छूटा क्या!
कितना, टूटा क्या!

वो वृक्ष घना था, या इक वन था,
सावन था, या इक घन था,
विस्तृत जीवन का, लघु आंगन था,
विस्मित करता, वो हर क्षण था!

कोई क्या जाने, पीछे छूटा क्या!

वो बचपन था, या अल्हड़पन था,
यौवन में डूबा, इक तन था,
इक दर्पण था, या, मेरा ही मन था,
कंपित होता, हर इक कण था!

कोई क्या जाने, पीछे छूटा क्या!

वो आशाओं का, अवलोकन था,
अदृश्य भाव का, दर्शन था,
भावप्रवण होता, गहराता क्षण था,
विह्वल सा, वो आकुल मन था!

कोई, क्या जाने, पीछे छूटा क्या!
कितना, टूटा क्या!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 29 August 2021

मन पंछी

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

झूले कैसे, गगन का ये झूला,
भरे, पेंग कैसे, 
पड़ा, तन्हा अकेला,
तन्हाईयाँ, वो आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

बरबस, खींच लाए, वो साए,
देखे, भरमाए,
करे, कोरी कल्पना,
भरे रंग, वो मन शाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

भटके ना, कहीं डाली-डाली,
भूले ना, राह,
चाहतों का, गाँव,
वियावानों में, आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

रंग सारे, यूँ बिखरे गगन पर,
रंगी, ये नजारे,
भाए ना, रंग कोई,
ना ही, दूजा फरियाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 28 August 2021

दो अलग बातें

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

चुप से, वो कहकहे, सारे अनकहे,
गूंजता वो आंगन, बहका सा ये सावन,
लरजते दो लब, सहमे वो दो पल,
उन पलों की, ये सौगातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

गुजर से गए जब, उभर आए तब,
नजरों से दूर, उभर आए नजरों में पर,
ख्यालों में तय, हो चले ये फासले,
हैरां करे, वो सारी यादें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

करे कैद, टिम-टिमाते वो सितारे,
टँके फलक पर, उन्हें अब कैसे उतारें,
यूँ ही देखते, बस रह से गए वहीं,
तन्हा, गुजरती रही रातें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

छूकर गईं, फिर, उनकी ही सदा,
भूलें कैसे? ओ जाते पल, तू ही बता,
छू लें कैसे! बहती सी वो है हवा,
टूटी, यहाँ कितनी शाखें!

हैं कितनी अलग, ये दो बातें!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 14 August 2021

गुनाह

ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने, 
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!

कौन सी ख्वाहिश के, पर दूँ कतर,
कैसे फेर लूँ, किसी की, उम्मीदों से नजर,
कर्ज एहसानों के, लिए यूँ उम्र भर,
तेरी ही गलियों से, रहा हूँ गुजर,
बाकि रह गई, राह कितनी, जिन्दगीं!

और गुनाह कितने, 
करवाएगी ऐ जिन्दगी!

शक भरी निगाहों से, तू देखती है,
दलदल में, गुनाहों के, तू ही धकेलती है,
सच भी कहूँ, तू झूठ ही तोलती है,
उस शून्य में, झांकती है नजर,
खाली है आकाश कितनी, जिन्दगीं!

और गुनाह कितने, 
करवाएगी ऐ जिन्दगी!

रिश्ते बिक गए, तेरी ही बाजार में,
फलक संग, रस्ते बँट गए इस संसार में,
बाकि रह गया क्या, अधिकार में,
टीस बन कर, आते हैं उभर,
गुनाहों के विस्तार कितने, जिन्दगी!

ऐ जिन्दगी! तू कोई गुनाह तो नहीं,
पर, लगे क्यूँ, किए जा रहा मैं,
गुनाह कोई,
और गुनाह कितने, 
करवाएगी, ऐ जिन्दगी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 August 2021

बहता किनारा

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पर, गुजारे हैं, पल, सारे यहीं,
रख चले, बुनकर, सपनों के सारे, धागे यहीं,
पर, देखती कहाँ, पलट कर?
भागते, वो धारे,
बहा ले जाती, इक उम्र सारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

पलटकर, लौट आती है रोज,
बरबस, भर एक आलिंगन, करती है बेवश,
पिघलता, वो रुपहला पहर,
डूबते, वो सहारे,
जैसे, कर जाते हैं.. बेसहारा!

पिघलते सांझ सा, बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 7 August 2021

उड़ता आँचल

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक, बादल हो तुम!

कभी, किरणों संग, उतर कर, 
चली आई, जमीं पर,
झूल आई, कभी आसमां पर,
कभी, सितारों का इक,
कारवाँ हो तुम!

छल जाए, मन को...

सांझ सा, एक बहता किनारा,
कब, हो सका हमारा,
पर, गुजारे हैं, पल सारे यहीं,
रूठी हुई, उम्मीदों का,
सहारा हो तुम!

छल जाए, मन को...

भटका सा, कोई आवारा घटा,
चुरा ना ले, तेरी छटा,
स॔भाल दूँ, आ ये आँचल जरा,
एक अल्हड़ सी कोई,
रवानी हो तुम!

छल जाए, मन को...

जरा देख लूँ, तुझे निष्पलक,
निहार लूँ, अ-पलक,
बदलता, बहुरूपिया फलक,
आकाश में, घुली सी,
चाँदनी हो तुम!

उड़ता सा, कोई आँचल हो तुम,
छल जाए, मन को, वो इक बादल हो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वही पुरवाई

भरमाती, संग चली आई, वही पुरवाई!

कितनी ठंढ़ी सी, छुवन,
जागे, लाख चुभन,
वही रातें, वही सपने, फिर लिए आई,
भरमाए पुरवाई!

बांधे, अपनेपन के धागे,
संग, पीछे ही भागे,
वही खुश्बू, वही यादें, लिए चली आई,
भरमाए पुरवाई!

छोड़, सारे लाज शरम,
तोड़, मन के भरम, 
राहें, पीपल सी वो बाहें, भरे अंगड़ाई,
भरमाए पुरवाई!

उड़ा ले जाए, दूर कहाँ,
संग, है कौन यहाँ, 
धूँधला, वो जहाँ, हो जाए न, रुसवाई,
भरमाए पुरवाई!

कर दे, कभी नैन सजल,
यादों के, वो पल,
विह्वल कर जाए, वो धुन, वो शहनाई,
भरमाए पुरवाई!

चुन लाता, बिखरे मोती,
वो आशा-ज्योति,
चंचल, बहकी सी पवन, बड़ी सौदाई,
भरमाए पुरवाई!

भरमाती, संग चली आई, वही पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 2 August 2021

कर कुछ बात

ऐ रात, तू ही कर, कुछ बात,
बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

तू, मेरी बात न कर,
छोड़ आया, कहीं, मैं उजालों का शहर,
जलते, अंगारों का सफर,
भड़के, जज्बात!

बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

है तेरी बातें, अलग,
सोए रातों में, जागे जज्बातों का विहग,
बुझे, जली आग सुलग,
संभले, लम्हात!

बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

तू है, तारों का सफर,
सुलगते अंगारों से, भला तुझे क्या डर,
यूँ, सर्द आहें, तू ना भर,
भीगे, पात-पात!

बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

मैं तो, दिन का जला,
मीलों, उम्र भर संग, अनथक मैं चला,
पर, अचानक वो ढ़ला,
कहाँ कोई, साथ!

ऐ रात, तू ही कर, कुछ बात,
बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 31 July 2021

तिश्नगी-2

ले जाऊँ किधर, उनकी यादों का शहर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

भूलती है कहाँ, दो आँखों का वो जहां,
पिघलते धूप सा, हल्का वो धुआँ,
मिले जो रंग वही, कहीं मैं जाऊँ ठहर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

ले जाऊँ किधर....

वही तो रंग है, पर, वो फागुन है कहाँ, 
भीगा सा, बादलों का, वो कारवाँ,
बे-वक्त, उमर आया, था एक पतझड़,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

ले जाऊँ किधर....

सिमटी-सिमटी, गुजर रही, वो चांदनी,
ज्यूँ राग से, मुकर गई हो, रागिनी,
धूँधलाती रही, रात भर, वही रहगुजर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

ले जाऊँ किधर, उनकी यादों का शहर,
भटकाए, वही तिश्नगी, दर-बदर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 30 July 2021

तिश्नगी

चलो चलें कहीं, उन फिजाओं में.....

इक तड़प, इक तिश्नगी, सी है छाई,
सिमट सी आई, है ये तन्हाई,
घुटन सी है, इन हवाओं में,
चलो चलें कहीं.......

कितनी बातें, करती हैं ये खामोशी,
हवाओं नें, की है ये सरगोशी,
चुभन सी है, ऐसी बातों में,
चलो चलें कहीं.......

यूँ, कब तलक, तरसाए, ये तिश्नगी,
मार ही डाले, न ये, आवारगी,
अगन सी है, इन सदाओं में,
चलो चलें कहीं.......

इक गिरह सी, बंध चुकी है अन्दर,
रुक पाए, पर कहाँ ये समुन्दर,
सीलन सी है, इन दरारों में, 
चलो चलें कहीं.......

चलो चलें कहीं, उन फिजाओं में.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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तिश्नगी: प्यास, लालसा, तड़प, उत्कंठा, तमन्ना, तीव्र इच्छा, अभिलाषा