Thursday, 31 March 2022

ढ़ाई युग - एक यात्रा

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
कुछ पन्थ बने, वो पन्ने अब ग्रन्थ बने,
लिखते-लिखते, कल तक!

देखता हूँ, अब, उसी पन्थ पर, 
पीछे, मुड़-मुड़ कर,
आ घेरती है मुझे, 
अपनी ही, व्यक्तित्व की गहरी परछाईं,
जो संग चला, संग-संग ढ़ला,
ढ़ाई युग तक!

परिप्रेक्ष्य ही, बदल चुके अब,
परछाईं सा, वो रब,
कहाँ विद्यमान में!
खाली कुछ पल, हो चले प्रभावशाली,
गहराते रहे, यूँ सांझ के साए,
अंधियारों तक!

छूटा, शेष कहीं, उन ग्रन्थों में,
फर-फराते, पन्नों पर,
जीवंतता खोकर,
व्यक्तित्व का, शायद, दूसरा ही पहलू,
उभरे ना, इक दूसरी परछाईं,
दूजे पन्नों तक!

मगर, इक शेष, खड़ा सामने,
लक्ष्य, हैं कई साधने,
वो युग के संबल,
संग खड़े, अनुभव के अक्षुण्ण पल,
और, कहीं साधक सी जिद,
पले प्राणों तक!

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
यूँ युग और ढ़हें, नवपन्थ, नवग्रन्थ बनें,
लिखते-लिखते, कल तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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30.03.1992 से 30.03.2022
कुछ यादगार तस्वीरें और पड़ाव ....
Year 1992
Year 2022
Year 1992
Year 2022


Saturday, 19 March 2022

दीर्घ श्वांस

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

यूँ तो, आपा-धापी में, भूल बैठा खुद ही को,
रहा निरंतर, खुद से ही निरुत्तर,
कहता, क्या किसी को!
शिकायत तुम जो करते, मैं जाग जाता,
सोए एहसासों को जगाता,
रहे तुम साथ ही, पर मैं!
साथ था कब?

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

खिली इस बागवां में, अधखिली ही ये कली,
मुरझा चुके, मन के फूल कितने,
आ चुभे, यूँ शूल कितने,
इस राह पर, तुम, जताते अधिकार गर,
रुक ही जाता, मैं रास्तों पर,
सहते गए, तुम धूप सारे, 
गुम रहा मैं!

आपा-धापी में....
शुकून, इक पल मिल सके जब....
तब, दीर्घ श्वासें भर सकूंगा,
तुमसे, मिल सकूंगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 18 March 2022

फाग के रंग

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

खिल न पाएंगे, यूँ ही हर जगह पलाश,
न होगी, हर घड़ी, ये फागुनी बयार,
पर, न फीके होंगे, गीत ये फाग के,
रह-रह, बज उठेंगे, मन के अन्दर,
मिल ही जाएंगे, चलते-चलते, तुझ संग,
वो चटकते, टेसुओं से, लाल रंग!

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

रंग सारे, यूँ, खिल उठेंगे फागुन से परे,
गीत मन के, बज उठेंगे नाद बनके,
ये मौसम, यूँही, सदा बदलते रहेंगे,
पर तुझको ही तकेंगे, ये नैन मेरे,
मौसम से परे, खिल ही जाएंगे तेरे संग,
वो चटकते, टेसुओं से, लाल रंग!

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

झूलेगी कहीं, बौराई, डाली आम की,
कह उठेंगी, हर, कहानी शाम की,
बिखरेंगे पटल पर, यूँ रंग हजारों,
उस फाग में, होंगे हम भी यारों,
उभरेंगे आसमां पर, शर्मो हया के संग,
वो चटकते, टेसुओं से, लाल रंग!

यूँ रंग ले, मेरे संग, फाग के रंग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

रंग

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
तुम्हारी मांग में,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, सपने मेरे!

और, आज भी, दैदिप्य सा है,
तुम्हारे भाल पर,
सफेद, बालों के मध्य,
वही, लाल रंग!

और इधर! चुप, मंत्र-मुग्ध मैं,
ताकूँ, वो ही रंग,
बिखरे, जो यकीन बन,
जिंदगी में, मेरे!

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
बुने, कुछ ख्वाब,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, ख्वाब मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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परिकल्पनाओं में पलते, सारे रंग,
उम्र भर, रहें आप संग।।।

होली की अशेष शुभकामनाओं सहित.......

Sunday, 13 March 2022

हार जाता हूँ

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

हरा देती है, मुझको, एक झलक तेरी,
बढ़ा जाती है, और ललक मेरी,
एक झलक वही फिर पाने को, बार-बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझमें, शायद, सागर है इक समाया,
है गागर सा, जो छलक आया,
उन लहरों संग, ठहर जाने को, हर बार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

मन ही जो हारा, करे क्या बेचारा?
जागे, तक-तक रातों का तारा,
विवशता वश, जताने अपना अधिकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

जैसे, थका हारा, एक मुसाफिर मैं, 
भाए ना, जिसको, कोई भी शै,
सारे स्वप्न अधूरे, कर लेने को साकार,
पास, चला आता हूँ मैं!

देखो ना....., खुद हार जाता हूँ मैं!

तुझको जीत लेने की कोशिश में, हर बार,
खुद, हार जाता हूँ मैं,
देखो ना,
दूर कहाँ, तुझसे, जा पाता हूँ मैं !

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 5 March 2022

हुआ क्या?

हुआ क्या?
इस उम्र के उड़ते परिंदों को!

खो चला वो, ख्वाहिशों के बादलों में,
जा छुपा, किन आंचलों में,
खो चुकी कहीं, नादान सी सारी अटखेलियां,
रह गई, उम्र, बन कर पहेलियां,
हुआ क्या?
इस उम्र के उड़ते परिंदों को!

डरने लगा वो, विराने उन किनारों से,
प्रतिबिम्ब के, नजारों से,
शायद, डराने लगी हैं, अंजानी सी आकृतियां,
आईनों से, झांकती परछाईयां,
हुआ क्या?
इस उम्र के उड़ते परिंदों को!

फिर ढ़ूंढ़ता वो, ठंढ़े झौंके मलय के,
ठहरे, वो लम्हे समय के,
ऊंघती इन वादियों में, गूंजती सी शहनाईयां,
उन संग, गुजारी हुई तन्हाईयां,
हुआ क्या?
इस उम्र के उड़ते परिंदों को!

इक सत्य वो, क्यूं नहीं, स्वीकारता,
बातें, क्यूं, नहीं मानता,
पहलू, दूसरा ही, वक्त के इस बहते भंवर का,
फड़फड़ाता, यूं जिद पर अड़ा,
हुआ क्या?
इस उम्र के उड़ते परिंदों को

Friday, 4 March 2022

जीवटता

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
शायद, लम्बा है जरा, पतझड़ों का ये मौसम!
रोके रखी हैं, सांसें थामकर अन्दर,
ये हवाएं, बस जरा जाएं गुजर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
ग़म के समुन्दर, बहे जा रहे, अन्दर ही अन्दर!
छाले, जो पत्तियां, दें गईं बदन पर,
उठती हैं, कभी, टीस बन कर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
चुप ही चुप, आँकती हैं, मौसमों का मिजाज!
सोंचती हैं, मूंद कर अपनी पलकें,
गुजर जाए, वक्त के ये भंवर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
उनकी ये जीवटता, मिटने भी कहां देगी उन्हें!
जगाएंगे, पलकों तले पलते सपने,
नीरवता भरी, उन राहों पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
संघर्ष एक लम्बा, इस जिन्दगी का है अधूरा!
लौट ही आएंगे, आस के वो पंछी, 
चहक उठेंगे, इसी डाल पर!

सूखी नहीं हैं, ये शाखें, अभी....
खुद ही, खिल उठेंगी, ये फिर सँवर कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 18 February 2022

निरुत्तर

किसी ने, उकसाया था, शायद!
यूं ही, पूछ बैठी,
प्रेयसी मेरी, मुझसे ही,
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

क्यूं रहती हूं, मैं बिल्कुल पास, तुम्हारे ही,
जबकि, कभी, चुभ जाती हैं, 
तुम्हारी, कुछ बातें, आकर यूं ही,
अक्सर, होते हो रूखे,
कर जाते हो, अनसुना, एहसासों को मेरे,
दो पल को, होती हूं, भावुक,
फिर, दूजे ही पल, 
हो उठती हूं, भाव-विभोर,
खो जाती हूं, बस तुझमें ही,
सुना है, टूटकर भी, सूखते नहीं, नागफनी!
जबकि, पल में, सूख जाते हैं फूल,
कहो ना, 
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

निरंतर, उनसे, ये बातें सुन कर,
निरुत्तर सा था मैं!
विषयवस्तु ही थे कठिन,
निरंतर कुछ प्रश्न, थे और जटिल! 

क्यूं, घबराता है मन, तुम्हारे न आने से,
एहसास, क्यूं हो उठते सूने!
घेरे होते हैं, तेरी बातों के, वलय,
व्यस्तता भी नहीं, कोई,
फिर भी, ख्यालों में व्यस्त सी दिन भर,
डंसते हुए,  सांझ के वो पल,
चुभता सा इंतजार,
खिंची सी होती, उस ओर,
ज्यूं पतंग संग, बंधी कोई डोर,
सुना है, उम्र भर कुम्हलाते नहीं नागफनी!
लेकिन, क्षण भर में मुर्झाते ये फूल,
कहो ना, 
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

डूब चुका था, गहरी सोंच में मैं,
प्रश्न ही था ऐसा,
भिन्न कर पाता मैं कैसे,
यह, प्रेम हमारा, कांटा है या फूल?

हां, एक दिलासा भर, मैं दे सकता था,
सपने, संग बुन सकता था,
संग, दूर तलक चल सकता था,
मैं, बो देता कांटे कैसे!
हाँ, बिछ जाता, उनकी प्रगति पथ पर,
लेकिन, कैसी थी यह शंका!
क्या, कारण था?
शायद, मेरी ही अनदेखी!
मैंने ही, कब उनका प्रेम जाना!
अधिकारवश, कुछ भी मेरा कह जाना,
अकारण से ही, कोई दोषारोपण,
या मैंने,
नादानी में ही, की थी कुछ भूल?

मैंने ही, उकसाया था, शायद!
या, यूंही पूछ बैठी,
प्रेयसी मेरी, मुझसे ही,
कि, प्रेम तुम्हारा, कांटा है या फूल?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 15 February 2022

निमंत्रण

ले हल्दियों से रंग, गुलमोहर संग,
लगी झूलने फिर, शाखें अमलतास की!

छूकर बदन, गुजरने लगी, शोख सी पवन,
घोलकर हवाओं में, इक सौंधी सी खूश्बू,
गीत कोई सुनाने लगी, भोर की पहली किरण,
झूमकर, थिरकने लगा वो गगन‌!
 
ले किरणों से रंग, गुलमोहर संग,
लुभाने लगी मन, शाखें अमलतास की!

कर गईं क्या ईशारा, ले गई मन ये हमारा,
उड़ेलकर इन नैनों में, पीत रंग प्रेम का,
रिझाने लगी, झूल कर शाखें अमलतास की,
बात कोई, कहने लगी हर पहर!

ले सरसों सा रंग, गुलमोहर संग,
गुन-गुनाने लगी, शाखें अमलतास की!

पट चुकी, फूलों से, हर तरफ, राह सूनी,
मखमली सेज जैसे, बिछाई हो उसने,
दे रही निमंत्रण, कि यहीं पर, रमा लो धूनी,
अब, वश में कहां, ये अधीर मन!

ले सपनों सा रंग, गुलमोहर संग,
बुलाए उधर, वो शाखें अमलतास की!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)