Sunday, 20 December 2015

मैं रहूंगा जीवित!

मै पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा,
अकाट्य सत्य है कि एक दिन मिट जाऊंगा,
पृथ्वी पर जन्मे,असंख्य लोगों की तरह, 
समाहित कर दिया जाऊंगा दावानल में,
प्रवाहित कर दी जाएंगी मेरी अस्थियां भी,
गंगाजल फिर या किसी नदी तालाब मे,
मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ भी।

मेरे नाम के शब्द भी हो जाएंगे,
एक दूसरे से अलग-अलग.
पहुँच जाएंगे शब्दकोष में अपनी-अपनी जगह,
जल्दबाजी में समेट लेंगे वेअपने अर्थ भी,
लेने को एक नई पहचान, एक नव-शरीर के साथ।

पुरूष कहीं होगा, उत्तम कहीं, कहीं होगा कुमार,
सिंहा होगा कहीं, करता हुआ पुनर्विचार,
एक दिन असंख्य लोगों की तरह, 
मिट जाऊँगा मैं भी, मिट जाएगा मेरा नाम भी।

पर निज पर है मुझे विश्वास कि रहूंगा मैं,
फिर भी जीवित, चिर-मानस में तुम्हारे,
राख में दबे अंगारे की तरह,
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम, अपरिचित,
रहूंगा जीवित फिर भी मै -फिर भी मैं।
भुला न पाओगे तुम मुझे जीवन पर्यन्त।

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