Tuesday, 22 December 2015

रूह की सिसकियाँ

कुछ बूंदों के अकस्मात् बरस जाने से,
सिर्फ लबों को क्षणभर छू जाने से,
बादलों के बिखरकर छा जाने से,
ये रूह सराबोर भींग नहीं जाते।

जमकर बरसना होगा इन बादलों को,
झूमकर बूंदों को करनी होगी बौछार,
छलककर लबों को होना होगा सराबोर,
रूह तब होगी गीली, तब होगी ये शांत।

पिपासा लिए दिगंत तक पहुचते-पहुँचते,
हो जाए न ये रूह एकाकी, होते-होते भोर,
विहंगम शून्य को तकते ये नीलाकाश,
अजनबी सी खड़ी रूह, कही उस ओर।

कुछ स्पंदन के लम्हात् और बढ़ा जाते,
रूहों की पिपासा और अविरल जीने की चाहत,
ताउम्र नही मिल पाती फिर भी,
रूह की सिसकियों को, तनिक भी राहत।

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