Sunday, 27 December 2015

चाह मेरी

चाह मेरी 
बरगद सा विशाल बनूँ,
दरख्तों सी हो
शख्सियत हमारी,
कंधे विशाल 
थामूँ युग का जुआ।

बरगद जैसी हो
असंख्य मजबूत बाहें,
शाखाएँ विशाल चहुँ दिशा में
लिए छाँव घने,
बने शख्सियत 
सागर पटल सी विस्तृत।

उम्र के इस पड़ाव पर,
चंचल मन अधीर सा 
खोता जाता,
 वक्त हाथों से बस रेत सा 
फिसलता जाता।

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