हृदय की भाषा गर तुम समझो,
प्रीत हमारी समझ जाओगी,
शब्दों मे कहाँ इतनी प्रखरता,
भाव जो ये तुम्हे समझा पाएगी।
हृदय में प्रबल भावना बसते हैं,
सागर कल्पना के ये रचते हैं,
प्राणों की आहूति ये लेते हैं,
नामुमकिन शब्दों मे ढ़ल पाएगी।
हृदय गर पाषाण हों तो,
भाव कहाँ तुम जान पाओगी,
प्रस्तर भावों मे बसता जीवन,
क्या तुम भी कभी समझ पाओगी?
जिनके लिए हृदय बस अंग है,
जीवन बस आवागमन है,
लाभ-हानि,धन-सम्मान निज उत्थान है,
हृदय-भाव वहाँ ये मर जाते हैं ।
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