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Tuesday 4 February 2020

पदचाप

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

लगता है, इस पल तुम आए हो,
यूँ बैठे हो, पास!
सुखद वही, इक एहसास, 
तेरा ही आभास,
और चुप-चुप,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, कहीं बहती है इक सुधा,
बस यूँ, चुपचाप!
शायद, हों उनके अनुलाप,
करती हो आलाप,
थम-थम कर,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

मन भरमाए, वो हर इक आहट,
हर वो, पदचाप!
दोहराए, वो ही अभिलाप,
वो ही एकालाप,
करे रुक-रुक,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 16 December 2019

बिखरो न यूँ

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
सँवार लो, अपनी ही रंगों में,
ढ़ाल लो, हकीकत में, इन्हें तुम!

सपने ही हैं, गर टूट भी जाएँ तो क्या,
नए, सपने गुनो तुम!
उतर कर, निशा की छाँव में,
तम की गाँव के, तारे चुनो तुम!

बसे हैं इर्द-गिर्द, तुम्हारे सपनों के घर,
घर, कोई चुनो तुम!
बसा लो, इन्हें अपने नैन में,
बिखरे पलों को, समेट लो तुम!

या हों बिखरे, या चाहों मे रहे पिरोए,
उन्हीं की, सुनो तुम!
बिखर कर, स्वाति बूँदों में,
गगन से आ, सीप में गिरो तुम!

वस्तुतः, है अन्त ही, इक नया आरंभ,
पथ, अनन्त चुनो तुम!
राहें, बदल जाते हैं, मोड़ में,
हर छोड़ में, खुद से मिलो तुम!

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
निराशा के, डूबे से क्षणों में,
नींव, आशा की, नई रखो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 9 October 2019

सहचर

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

छोड़ दे ये दामन, अब तोड़ न मेरा मन,
पग के छाले, पहले से हैं क्या कम?
मुख मोड़, चला था मैं तुझसे,
रिश्ते-नाते सारे, तोड़ चुका मैं तुझसे!
पीछा छोर, तु अपनी राह निकल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

माना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
शर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

चुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
गम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

ये दर्द बेइन्तहा, सदियों तक तूने दिया,
बगैर दुःख, मैंनें जीवन कब जिया?
तू भी तो, पलता ही रहा मुझसे!
फिर भी छल, तू करता ही रहा मुझसे!
अब और न कर, मुझ संग छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 24 August 2019

धुंध

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दबी सी आहटों में, आपका आना,
फिर यूँ, कहीं खो जाना,
इक शमाँ बन, रात का मुस्कुराना,
पिघलते मोम सा, गुम कहीं हो जाना,
भर-भरा कर, बुझी राख सा,
आगोश में कहीं,
बिखर जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

अक्श बन कर, आईने में ढ़लना,
रूप यूँ, पल में बदलना,
पलकों तले, इक धुंध सा छाना,
टपक कर बूँद सा, आँखों में आना,
टिम-टिमा कर, सितारों सा,
निगाहों में कहीं,
विलुप्त होना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दिवा-स्वप्न सा, हर रोज छलना,
संग यूँ, कुछ दूर चलना,
उन्हीं राह में, कहीं बिछड़ना,
विरह के गीत में, यूँ ही ढ़ल जाना,
निकल कर, उस रेत सा,
इन हाथों से कहीं,
फिसल जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 18 June 2019

मन के रार

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

छोड़ न, तू ये जिद!
क्यूँ है तू, अपनी मर्जी पे काबिज?
गर होता वो अपना, वो खुद ही आता, 
तुझको अपनाता,
जिद, वो खुद करता!
यूँ तुझको, ना वो तड़पाता!
इक-तरफा चाहत में,
क्यूँ खुुुद को बेजार करे?
तड़पाएंगे ये तुुुुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

मोड़ ले, अपनी राहें!
भर ना तू, उनकी चाहत में आहें!
क्यूँ उनको ही चाहे, खुद को भटकाए,
अंजान दिशाएं,
क्यूँ खुद को ले जाए?
यूँ दिल को, तू क्यूँ उलझाए!
है ये भूल-भुलैया,
रुख क्यूँ उस ओर करे?
भटकाएंगे ये तुझको, फिर क्यूँ तू रार करे?

तोड़ दे, तू ये भरम!
इक दिन, दे जाएगा बस वो गम!
जिद, बन जाएगा तेरे गम का कारण,
है वो इक वहम,
और अनमोल है जीवन,
भूल न तू, जीवन के ये मरम!
बहती ये पवन,
कोई हाथों में कैैैसे भरे?
परछाईं के पीछे, क्यूँ खुद को शर्मसार करे?

मन रे, तू इतना क्यूँ रार करे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 7 June 2019

उसी कल में

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में ...

ये आज है, कि गुजरता ही नहीं,
क्या राज है कि मन समझता ही नहीं?
बदल से गए हैं पल,
या यहीं-कहीं ठहर से गए हैं पल,
चल रे चल, ऐ पल तू चल,
यूँ ना बदल,
कल, उनसे कहीं मिलना है हमें,
आने दे जरा, वो ही कल....

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

सुना था कि पंख होते हैं पलों के!
चाल, बड़े ही चपल, होते हैं इन पलों के!
इनको ये हुआ क्या?
उड़ते नहीं क्यूँ आज ये गगन पे,
ऐ, चपल पल, तू जरा चल!
ठहरा जो तू,
चल न दे, वो आने वाला कल,
ले आ जरा, वो ही कल....

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

निस्तब्ध हूँ मैं, देख कर तेरी अदा!
ऐसे न पहले, राह में तू कहीं था यूँ रुका!
निरंतर था तू चला,
क्यूँ आज ही, इस राह में तू रुका?
यूँ न कर मुझसे छल, तू चल!
तू आगे निकल,
उसी कल में, तू भी चल...

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 3 January 2019

पाथेय

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

सौरभ हूँ, समीर संग, साँसों में बहूंगा,
अनुभूति हूँ, जंजीर संग, मन बांध लूंगा,
रक्त हूँ, रुधिर संग, शिराओं में बहूंगा,
वक्त हूँ, संग-संग कहीं, बीतता मिलूंगा,
याद हूँ, एकांत में, अधीर हो उठुंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

शीतल समीर, जब छू जाएगी बदन,
कानों में, कुछ बात कह जाएगी पवन,
सुरीला गीत , गुन-गुनाएगी चमन,
होगा अधीर, मन का हिरण,
कोई आलाप बन, होंठों पे सजूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

उम्र की प्रवाह में, सूनी सी राह में,
ढ़लती सी हर सांझ में, ढूंढ लेना मुझे
एकाकीपन के, विपिन प्रांतर में,
अकेली राह में, संग चलता रहूूंगा,
फूल हूँ, रंग सा, खिलता मिलूंगा!

स्मरण हूँ, पाथेय बन, पथ में चलूंगा...

Saturday 17 November 2018

दो प्रस्तावना

दो स्वरूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

कामना के कई रंग देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूंकि, कल्पना से सर्वथा परे,
बिल्कुल अलग-अलग,
दो विपरीत कलाएँ, रचता है ईश्वर!

बसंत ही बसंत
या है पतझड़ ही पतझड़,
हरितिमा अनंत है
या है बंजर ही बंजर,
दो रूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

चुप ही चुप,
या कंठ में स्वर ही स्वर,
है सुर-विहीन,
या है सुर के सातों स्वर,
दो धुन जीवन के, रचता है ईश्वर!

अभिलाषा मन में देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूँकि, चाहत से सर्वथा परे,
कथाएं अलग-अलग,
दो भिन्न प्रस्तावना, रखता है ईश्वर!

चुनने को मार्ग सही, कहता है ईश्वर!

Wednesday 14 November 2018

अजनबी चाह

बाकी रह गई है,
कोई अजनबी सी चाह शायद....

है बेहद अजीब सा मन!
सब है हासिल,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है खास वो,
दूर है,
पर है पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ गुजर रहे हैं, चाह शायद!

सफर में साथ में,
रहते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

मौन है ये, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी सुप्त ये,
है कभी जीवन्त ये,
अन्तहीन सा,
प्रवाह अनन्त ये,
आस-पास ये
मन ही, किए वास ये,
कभी आहटों से,
तोडती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

अजनबी से इस राह में!
यूँ तो मिला मैं,
कई अजनबी सी चाह से,
कुछ प्रबल हुए,
कुछ बदल से गए,
कुछ गुम हुए,
कुछ पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे हैं, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

Thursday 25 October 2018

यही थे राह वो

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

वक्त के कदमों तले, यही थे राह वो,
गुमनाम से ये हो चले अब,
है साथ इनके, वो टिमटिमाते से तारे,
टूटते ख्वाबों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बिछड़े है जो कही, यही थे राह वो,
संग मीलों तक चले जो,
किस्से सफर के सारे, है आधे अधूरे,
तन्हा बातों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बदलते मौसमों मे, यही थे राह वो,
बहलाती हैं जिन्हें टहनियाँ,
अधखिले से फूल, सूखी सी कलियाँ,
शूल-काटो के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो....

Wednesday 22 August 2018

अब कहाँ कोई सदा

अब कहाँ है कोई सदा, जो फिर से पुकारता.....

वो मृदु भाव कहाँ,
है कहाँ अब वो मृदुल कंठ,
पुकार ले जो स्नेह से,
है कहाँ अब वो कोकिल से कंठ...

वो सुख-चैन कहाँ,
कहाँ है अब वो सुखद आँखें,
मुड़कर जो दे सदाएं,
है कहाँ अब वो बोलती निगाहें...

अब वो नैन कहाँ,
जो पिघला दे रीतकर पत्थर,
कर जाए भाव प्रवण,
है कहाँ अब वो भाव निर्झर...

अब न है वो सदाएं,
सूनी सी है अब मेरी पनाहें,
है सुनसान सा वो डगर,
और है उधर ही मेरी निगाहें....

वियावान हुई हैं राहें!
या, वो आवाज है बेअसर!
मन कलपता है कहीं!
या मन बन चुका है पत्थर...

अब कहाँ है कोई सदा, जो फिर से पुकारता.....

Sunday 29 July 2018

भूलोगे कैसे

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

वो सूनी राहें, वो बलखाते से पल,
बहते से लम्हे, ये हवाएं चंचल,
वो टूटे पत्ते, वो बिखरा सा आँचल,
यूं मुझमें खो जाओगे तुम,
बहते लम्हों संग, उड़ आओगे तुम,
मौसम के रंग बदलेंगे,
घटा घनघोर जमकर बरसेंगे,
भिगाएंगे, मन विरहाकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

उड़-उड़कर कागा मुंडेरे पे आएंगे,
काँव-काँव कर संदेशे लाएंगे,
अकुलाहट आने की ये दे जाएंगे,
सोचोगे, राह तकोगे तुम,
सूनी राहों के पदचाप गिनोगे तुम,
कागा फिर फिर आएंगे,
मुंडेर चढ़ गाएंगे, चिढाएंगे,
तरसाएंगे, मन आकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

कुहू-कुहू कोयल झुरमुट में गाएगी,
छुप-छुप विरहा ये सुनाएंगी,
यादें मेरी लेकर वो भी आएंगी,
मन ही मन, गाओगे तुम,
कुछ गीत मेरे, यूं दोहराओगे तुम,
सूने नैने छलक आएंगे,
कोयल, रुक-रुककर गाएंगे,
जलाएंगे, मन व्याकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

Monday 25 June 2018

सधी हुई चाल

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

संयम रखता हूं, धीरज धरता हूं,
दो-दो पग तुलकर, इक पग मैं रखता हूं,
बाधाओं से परे, मैं निर्बाध चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

आवेग प्रबल, नियंत्रित करता हूं,
खुद चुप-चुप रहकर, इक पग रखता हूं,
अवरोध से परे, निर्विरोध चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

अन्तर्विरोध का, विरोध करता हूं,
खुदपर काबू रखकर, इक पग रखता हूं,
विवादमुक्त मैं, निर्विवाद चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

विचलित है राहें, सीधा चलता हूं,
फिसलन से बचकर, इक पग रखता हूं,
टेढी राहों पर, सधकर मैं चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

Thursday 1 March 2018

मंजिल

मंजिल तेरी, इसी राह आएगी निकल....
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

क्यूं खोए है करार तू?
क्यूं यहाँ गम से है बेजार तू?
न राई का बना पहाड़ तू,
बस एक ही तो मेरा यार तू......
न जिंदगी बेकार कर!
न गम का तू कहीं इजहार कर!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

तू मुझसे मन का करार ले,
एक नया ऋंगार ले,
हर गम तू मुझपे वार ले,
पर यूं फैसले न तू हजार ले......
न आँहें हजार भर,
न शिकवे तू कहीं हजार कर!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

कल यूं पशेमाँ न होना पड़े,
तू काहे को ऐसा करे?
पल-पल जो यूं आँहें भरे,
राहें बदल बेजार खुद को करे.....
न यूं फैसले बदल!
कर के वादा कोई तू न बदल!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

बेशक न मुझको भी है खबर,
कि मंजिल तेरी है किधर!
इक राह पर बेखबर,
यूं ही चलना है तुझको मगर......
रुक जाए ना ये सफर!
यहीं है कहीं तेरे मन का शहर!
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

मंजिल तेरी, इसी राह आएगी निकल....
ऐ बेकरार दिल! तू चल, आ मेरे साथ चल!

Tuesday 28 November 2017

मैं, बस मैं नहीं

मैं, बस इक मैं ही नहीं.....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रव हूँ, इक धुन हूँ,
हृदय हूँ, आलिंगन हूँ, इक स्पंदन हूँ,
गीत हूँ, गीतों का सरगम हूँ
गूंजता हूँ हवाओं में,
संगीत बन यादों में बस जाता हूँ,
गुनगुनाता हूँ मन में, यूँ मन को तड़पाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं........
इक दिल हूँ, इक धड़कन हूँ,
भावुक हूँ कुछ, थोड़ा बह जाता हूँ,
बंधकर पीड़ा में रह जाता हूँ,
खो जाता हूँ खुद में,
औरों के गम में आहत हो जाता हूँ,
विलखता हूँ मन में, एकान्त जब होता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रोश हूँ, इक आक्रोश हूँ,
गर्म खून हूँ, जुल्म से उबल जाता हूँ,
चुभती बात कहाँ सह पाता हूँ,
विरुद्ध हूँ मैं दमन के,
खुली चुनौती देकर लड़ जाता हूँ,
कलपता हूँ मन में, प्रभावित मैं होता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक राह हूँ, इक प्रवाह हूँ,
कभी रुकता हूँ, कभी चल पड़ता हूँ,
जूझकर रोड़ों से गिर पड़ता हूँ,
समाहित हूँ मैं खुद में,
यूँ राह प्रशस्त कर बढ़ जाता हूँ,
छलकता हूँ मन में, यूँ बस संभल जाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक जीव हूँ, इक जीवन हूँ, 
कभी सही हूँ, तो कभी गलत भी हूँ,
खबर नहीं है की सत्यकाम हूँ,
सत्यापित हूँ मैं खुद में,
बस जीवन को जीता जाता हूँ,
इठलाता हूँ मन में, यूँ खुद को बहलाता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

Thursday 16 November 2017

बदल रहा ये साल

युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

यादों के कितने ही लम्हे देकर,
अनुभव के कितने ही किस्से कहकर,
पल कितने ही अवसर के देकर,
थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर,
कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल...

प्रशस्त प्रगति के पथ देकर,
रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर,
काम अधूरे से बहुतेरे रखकर,
निरंतर बढ़ने को कहकर,
युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

अपनों से अपनों को छीनकर,
साँसों की घड़ियों को कुछ गिनकर,
पीढी की नई श्रृंखला रचकर,
जन्म नए से युग को देकर,
सारथी युग का बनाकर, बदल रहा ये साल....

नव ऊर्जा बाहुओं में भरकर,
कीर्तिमान नए रचने को कहकर,
लक्ष्य महान राहों में रखकर,
आँखों में नए सपने देकर,
विकास पुरोधा बनकर, बदल रहा ये साल...

प्रस्तावों की इक सूची देकर,
मंत्र नए सबके कानों में कहकर,
अपनी मांग नई कुछ रखकर,
प्रण जन-जन से लेकर,
कुछ लेकर कुछ देकर, बदल रहा ये साल.....
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Accolade from "शब्दनगरी" / 17.11.2017
"बधाई हो! आपका लेख आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है"
हृदय तल से धन्यवाद शब्दनगरी....

Thursday 9 November 2017

किसकी राह तके

सदियाँ बीत गई, प्रीत वो रीत गई...........

बैरन ये प्रीत हुई,
डोली प्रीत की, बस यादों में ही सजे,
तुझको वो भूल चुके,
तू किसको याद करे, किसकी राह तके?

बैरन हुई ये पवन,
मुई, गुजरती है अब क्यूँ छूकर ये बदन,
न वो पुरवाई चले,
तू क्युँ उसको याद करे, किसकी राह तके?

बदल गए मौसम,
बदली वो घटा, बूंदें बारिश की ये छले,
धूप सी ये छाँव लगे,
तू क्युँ उनको याद करे, किसकी राह तके?

शहर अंजान हुए,
अपना ना कोई, बेगाना सा हर मोड़ लगे,
गलियाँ ये विरान हुए,
तू तन्हा किसे याद करे, किसकी राह तके?

न आएंगे अब वे,
तुझसे नजरें भी न, मिला पाएंगे अब वे,
नैनों से क्युँ आब झरे,
तू रो-रो किसे याद करे, किसकी राह तके?

सदियाँ बीत गई,प्रीत वो रीत गई...........

Thursday 2 November 2017

हमसफर

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

राह में गर काँटे तुमको मिले अगर,
शूल पथ में हो हजार, बिछे हों राह में पत्थर,
तुम राहों में चलना दामन मेरा थामकर,
खिल आएंगे काँटों में फूल, साथ तुम दो अगर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो राहों में गर कहीं अंधेरा घना सा,
गर कोहरों में कहीं गुम हो जाए ये रास्ता,
ये दामन भरोसे से तुम थामे रखना,
जल उठेंगे सौ दिए, इन अंधेरों को चीरकर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो कहीं, छोटा सा इक आशियाँ,
बसाएंगे वहीं अपना, हम सपनों का जहाँ,
बिछड़े ना कभी हम ऐ मेरे हमनवाँ,
आँगन में बस गूंजे खुशी, हो न गम का बसर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

Tuesday 27 June 2017

जीवन यज्ञ

इक अनवरत अनुष्ठान सा,
है यह जीवन का यज्ञ,
पर, विधि विधान के फेरों में, 
है उलझी यह जीवन यज्ञ।

कठिन तपस्या......!
संपूर्णता की चाह में कठिन तपस्या कर ली मानव ने,
पर, मनोयोग पाने से पहले.....
पग-पग बाधाएँ कितनी ही आई तपयोग की राह में।

समुन्द्र मंथन......!
अमरत्व की चाह में समुन्द्र मंथन कर ली मानव ने ,
पर, अमृत पाने से पहले ...
कितने ही गागर गरल के आए अमरत्व की राह में।

पूर्णता की राहों में 
हैं पग-पग रोड़े यहों,
विघ्न रुपी विधान जड़ित रोड़ों से लड़ जाने को,
दो घूँट सुधा के फिर पाने को,
अमृत कलश इन होठों तक लाने को
ऐ मानव! समुद्र मंथन तुम्हे फिर से दोहराना होगा!

विधि विधान जड़ित बाधाओं से लड़,
सुधा-निहित गरल,
जो मानव हँसकर पी जाएगा,
सम्पूर्ण वही जीवन यज्ञ कर पाएगा।

Wednesday 14 September 2016

गुजरी राहें

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

वो राहें मुड़कर देखती हैं अब राहें मेरी,
जिन राहों से मैं गुजरा था बस दो चार घड़ी,
शायद करने लगी हैं वो राहें मुझसे प्यार,
सुन सकूंगा न मैं उन राहों की सदाएं,
पुकारो न मुझको बार-बार, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

इस कर्मपथ पर मेरी, गुजरेंगी राहें कई,
अपनत्व बाटूंगा उन्हे भी मैं, चंद पल ही सही,
अपने दिल के करने होंगे मुझे टुकड़े हजार,
कर न सकूंगा मैं उन राहों से भी प्यार,
हो सके तो भूल जाना मुझे, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...

ए राहें, तू झंकृत न कर मेरे मन के तार,
तू दे न अब सदाएं, बुला न मुझको यूॅ बार-बार,
बाॅध न तू मुझे रिश्तों के इन कच्चे धागों से,
भीगेंगी आॅखें मेरी, तोड़ न पाऊंगा मैं ये बंधन,
बेवश न कर अब मुझको, ए गुजरी सी राहें,

मिलने आऊॅगा मैं ढलते हुए शाम की चंपई सुबह लेकर...