Wednesday 31 October 2018

स्वप्न

रातों के एकाकी क्षण में,
अतृप्त आवेगों से सुलगते वन में,
जगता है रोज ही कोई स्वप्न,
जगती है कोई तृष्णा,
जग जाता है इक अतृप्त जीवन,
इच्छाओं के फैलाए फन!

रात के ढ़ेर पर......
रोज ही जगते हैं सोये से वे क्षण,
सांसें भरता इक स्वप्न,
इक अतृप्त सी जिजीविषा,
एक मृगतृष्णा,
जागी सी अनन्त सुसुप्त इच्छाएं,
करवट लेता हरक्षण,
स्वप्न में विघटित होता मन!

इच्छाओं के संग.....
व्याकुल हो उठते सोये से वे क्षण,
चल पड़ती है रात,
अनन्त टूटे प्यालों के साथ,
अनबुझ सी प्यास,
मन में पनपती इक अकुलाहट,
बेचैनी प्रतिक्षण,
स्वप्न में शिथिल पड़ता तन!

स्वप्न के टीले पर...
तृष्णाओं के संग सोए से वे क्षण,
जागृत अन्तःमन,
पिरोता हो कई चाह अनंत,
आस में कस्तूरी के,
जैसे मृग भटकता हो वन-वन,
अदृश्य दिग्दिगंत,
स्वप्न में अतृप्ति के ये क्षण!

रातों के एकाकी क्षण में,
अतृप्त आवेगों से सुलगते वन में,
जगता है रोज ही कोई स्वप्न,
जगती है कोई तृष्णा,
जग जाता है इक अतृप्त जीवन,
इच्छाओं के फैलाए फन!

Sunday 28 October 2018

पथ के आकर्षण

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

इक पथ संग-संग, साथ चले थे वो पल,
मन को जैसे, बांध चले थे वो पल,
बस हाथों मे कब, कैद हुए हैं वो पल,
वो आकर्षण, मन-मानस में बस जाते हैं!
सघन वन में, ये खींच लिए जाते हैं....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

सम्मोहन था, या कोई जादू था उस पल,
मन कितना, बेकाबू था उस पल,
जाम कई, प्यालों से छलके उस पल,
सारा जाम, कहाँ बूँद-बूँद हम पी पाते हैं!
प्यासे है जो, प्यासे ही रह जाते हैं....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

अब नजरों से, ओझल हुए है वो पल,
कुछ बोझिल, कर गए हैं वो पल,
आगे हूँ मैं, पथ में ही छूटे हैं वो पल,
बहते धार, वापस हाथों में कब आते हैं!
कुछ मेरा ही, मुझमें से ले जाते है.....

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे पथ में ही रह जाते हैं .....

Saturday 27 October 2018

चाँद तक चलो

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

नभ को लो निहार तुम,
पहन लो, इन बाँहों के हार तुम,
फलक तक साथ चलो,
एक झलक, चाँद की तुम भर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

प्राणों का अवगुंठण लो,
इस धड़कन का अनुगुंजन लो,
भाल जरा इक अंकन लो,
स्नेह भरा, मेरा ये नेह निमंत्रण लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

यूं हुआ जब मैं निष्प्राण,
बिंधकर उस यम की सुईयों से,
भटके दर-दर तुम कहते,
पिय वापस दे दो, यम सूई ले लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

ये झौंके हैं शीत ऋतु के,
ये शीतल मंद बयार मदमाए से,
ये अंग प्रत्यंग सिहराए से,
ये उन्माद, महसूस जरा कर लो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

सिहरन ले आया समीर,
तुम संग चलने को प्राण अधीर,
पग में ना अब कोई जंजीर,
हाथ धरो, प्रिय नभ के पार चलो!

ओ प्रियतम, चाँद तलक तुम साथ चलो...

Thursday 25 October 2018

यही थे राह वो

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

वक्त के कदमों तले, यही थे राह वो,
गुमनाम से ये हो चले अब,
है साथ इनके, वो टिमटिमाते से तारे,
टूटते ख्वाबों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बिछड़े है जो कही, यही थे राह वो,
संग मीलों तक चले जो,
किस्से सफर के सारे, है आधे अधूरे,
तन्हा बातों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बदलते मौसमों मे, यही थे राह वो,
बहलाती हैं जिन्हें टहनियाँ,
अधखिले से फूल, सूखी सी कलियाँ,
शूल-काटो के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो....

श्वेत-श्याम

होने लगी है, श्वेत-श्याम अब ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

इक गगन था पास मेरे.....
विस्तार लिए, भुजाओं का हार लिए,
लोहित शाम, हर बार लिए,
रंगो की फुहार, चंचल सी सदाएं,
वो सरसराहट, उनके आने की आहट,
पहचानी सी कोई परछांईं,
थी हर एक शाम, इक पुकार लिए.....

हो चला अब, बेरंग सा वो ही गगन,
होने लगी अब, श्वेत-श्याम हर एक शाम....

इक गगन अब पास मेरे.....
निस्तेज सा, संकुचित विस्तार लिए,
श्वेत श्याम सा उपहार लिए,
धुंध में घिरी, संकुचित सी दिशाएं,
न कोई दस्तक, न आने की कोई आहट,
अंजानी सी कई परछांई,
बेरंग सी ये शाम, उनकी पुकार लिए.....

मलीन रंग  लिए, तंज कसती ये शाम,
लगने लगी है, इक अजनबी सी अब ये शाम....

Tuesday 23 October 2018

मरुवृक्ष

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

दहकते रहे कण-कण,
पाया ना, छाँव कहीं इक क्षण,
धूल ही धूल प्रतिक्षण,
चक्रवात में, मरुवृक्ष सा रहा....

अचल सदा, अटल सदा....

रह-रह बहते बवंडर,
वक्त बेवक्त, कुछ ढ़हता अंदर,
ढ़हते रेत सा समुन्दर,
सूनी रात में, मरुवृक्ष सा जगा....

अचल सदा, अटल सदा.....

वक्त के बज्र-आघात,
धूल धुसरित, होते ये जज़्बात,
पिघलते मोम से वात,
रेगिस्तान में, मरुवृक्ष सा पला....

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

Sunday 21 October 2018

गठबंधन

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

बंध बंधते रहे,
तार मन के जुड़ते रहे,
डबडबाए नैन,
बांध तोड़ बहते रहे,
चुप थे दो लब,
चुपके से कुछ कह गए,
गांठ रिश्तों के,
इक नए से जुड़ गए....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

खिल सी उठी,
मुरझाई सी इक कली,
आशाएं कई,
इक साथ पल्लवित हुई,
बांधने मन के,
इक नवीन बंधन वो चली,
नाम रिश्तों के,
इक नए से मिल गए.....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

मुक्त आकाश ये,
छूने लगा मुदित हृदय,
बेसुरा कंठ भी,
गाने लगा नवीन लय,
मुखरित राह पर,
राही नए दो चल पड़े,
राह रिश्तों के,
इक नए से मिल गए.....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

कोटि-कोटि कर,
आशीष देने को उठे,
कितने ही स्वर,
शंख नाद करने लगे,
ये सैकड़ों भ्रमर,
डाल पर मंडराने लगे,
डाल रिश्तों के,
इक नए से मिल गए.....

नाजुक डोर से इक,
दो हृदय, आज जुड़ से गए...

Thursday 18 October 2018

उद्वेलित हृदय

मेरे हृदय के ताल को,

सदा ही भरती रही भावों की नमीं,

भावस्निग्ध करती रही,

संवेदनाओं की भीगी जमीं.....



तप्त हवाएं भी चली,

सख्त शिलाएँ आकर इसपे गिरी,

वेदनाओं से भी बिधी,

मेरे हृदय की नम सी जमीं.....



उठते रहे लहर कई,

कितने ही भँवर घाव देकर गई,

संघात ये सहती रही,

कंपकंपाती हृदय की जमी....



अब नीर नैनों मे लिए,

कलपते प्राणों की आहुति दिए,

प्रतिघात करने चली,

वेदनाओं से बिंधी ये जमीं....



क्यूँ ये संताप में जले,

अकेला ही क्यूँ ये वेदना में रहे,

रक्त के इस भार से,

उद्वेलित है हृदय की जमीं....

इंतजार

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
शायद उन्हें था, उस तूफाँ के गुजर जाने का इंतजार!

था मुझे भी एक ही इंतजाार...,
वो तूफाँ, गुजरता रहे इसी राह हर-बार!
होती रही अनवरत बारिशें,
दमकती रहे दामिनी, गरजते रहें बादल,
लड़खड़ाते रहें उनके कदम,
रुकते रहें, दर मेरे ही वो बार-बार.....

था सदियों किया मैंने इंतजार...,
एक पल, काश वो मुझ संग लेते गुजार!
सजाता मैं तन्हाई अपनी,
रोकता उन्हें, थामकर उनका ही आँचल,
या रोक देता वक्त के कदम,
मिन्नतें यही, मैं करता उनसे हजार....

था शायद उन्हें भी ये इंतजार....,
कोई सदा, कर गई थी उन्हे भी बेकरार!
दमकने लगी थी दामिनी,
गरजने लगे थे, कयामत के वही बादल,
निकल पड़े थे उनके कदम,
चौखट मेरे, आ पड़े वो पहली बार....

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
न था अब उन्हें, किसी तूफाँ के गुजरने का इंंतजार!

Tuesday 16 October 2018

नींद

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

सांझ ढले यूँ पलकों तले,
हौले-हौले कोई नैनों को सहलाता है,
ढ़लती सी इक राह पर,
कोई हाथ पकड़ कहीं दूर लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

उभर आते हैं दृश्य कई,
पटल से दृश्य कई, कोई मिटा जाता है,
तिलिस्म भरे क्षण पर,
रहस्यमई इक नई परत कोई रख जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

बेवश आँखें कोई झांके,
कोई अंग-अग शिथिल कर जाता है,
कोई यूँ ही बेवश कर,
खूबसूरत सा इक निमंत्रण लेकर आता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....

नींद सरकती है नैनों में,
धीरे से कोई दूर गगन ले जाता है,
जादू से सम्मोहित कर,
तारों की उस महफिल में लिए जाता है.....
बंद पलकों को कर जाता है....

कब नींद ढ़ुलकती है, नैनो में कब रात समाता है....