है हाथों मे भरी गिलास,
पर इन अधरों पे अनबुझे से प्यास,
कुछ घूँट पी लेता हूँ मैं,
अधरों को नम कर लेता हूँ मैं,
पर अनबुझी सी फिर भी है वो प्यास।
प्यास कहाँ बुझती है इन प्यालों सें,
बढ़ जाती ये और इन प्यालों से,
प्यास छुपी पानी के अन्दर,
पानी के उपर ही तो ये प्याला तैरा है,
ये प्याला क्या अबतक अधरों पे ठहरा है?
सोचता हूँ मै भी तर जाऊँ,
इन प्यालों के संग लब को रंग डालूँ,
पहेली इस प्यास की मैं भी हल कर डालूँ,
प्यासे ये अधर क्ब तक रह पाएंगे,
जीवन की ये हाला हम पूरा पीकर जाएंगे।
पर इन अधरों पे अनबुझे से प्यास,
कुछ घूँट पी लेता हूँ मैं,
अधरों को नम कर लेता हूँ मैं,
पर अनबुझी सी फिर भी है वो प्यास।
प्यास कहाँ बुझती है इन प्यालों सें,
बढ़ जाती ये और इन प्यालों से,
प्यास छुपी पानी के अन्दर,
पानी के उपर ही तो ये प्याला तैरा है,
ये प्याला क्या अबतक अधरों पे ठहरा है?
सोचता हूँ मै भी तर जाऊँ,
इन प्यालों के संग लब को रंग डालूँ,
पहेली इस प्यास की मैं भी हल कर डालूँ,
प्यासे ये अधर क्ब तक रह पाएंगे,
जीवन की ये हाला हम पूरा पीकर जाएंगे।
No comments:
Post a Comment