Wednesday, 6 April 2016

अभिसार

ये घर मेरा है तेरे लिए, पर यह तेरा संसार नहीं,
बनी है तू मेरे लिए, पर मैं तेरा सार नही,
हुए पू्र्ण तुम मेरे ही संग, पर मैं तेरा अभिसार नहीं।

जिस रूप का अक्श है तू, जीता था वो मेरे लिए,
जिस नक्श में ढ़ली है तू, वो रूप है मेरे लिए,
मन मे तेरे रहता हूँ मैं, भटकती ये आत्मा तेरे लिए।

कुछ लेख विधि का ऐसा, लकीर हाथों मे वो नहीं,
मन ढ़ूंढ़ता है जिसे, मिलता नही वो शख्स कहीं,
नक्श एक दफन हो रही, फिर उस हृदय में ही कहीं।

हर शख्स फिरता यहाँ, पनघट पे ही प्यासा यूँ हीं,
कुछ बूँद के मिल जाने से, प्यास वो बुझी नहीं,
अनजान सी प्यास की, तलाश में मन अतृप्त हैं कहीं।

काश! मन चाहता है जिसे, संसार भी मिलता वही,
बूंदों की बौछार में, भटकता कोई प्यासा नही,
पूर्ण होती वो संग-संग, फूलों से हम खिल जाते यहीं।

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