तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!
तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!
तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!
तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह! बहुत बढिए कविता।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय नीतीश जी। शुभ प्रभात।
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ज्योति जी। शुभ प्रभात।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 27 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आदरणीया दिव्या जी
Deleteसुंदर अहसासों से सुशोभित मनोहारी कृति..
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया जिज्ञासा जी। शुक्रिया।
Deleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय शान्तनु जी
Deleteवाह
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय जोशी जी
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteजाते हुए साल को प्रणाम।
आदरणीय मयंक सर, 2021 की अग्रिम बधाई आपको भी। शुक्रिया।
Deleteबहुत बहुत मधुर रचना
ReplyDeleteआभार आदरणीय आलोक जी
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