Wednesday, 14 April 2021

टूटे जो संयम

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

लास्य रचाती, अभीप्साओं की उर्वशियाँ!
जीवन का गायन, मन का वादन,
हर क्षण, इक उद्दीपन,
डिग जाए आसन, टूटे जो संयम, 
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ!
पुकारे, नाद रचाती ये पैजनियाँ!

भरमाए, ये रश्मियाँ, आती जाती उर्मियाँ!
ये चंचल लहरें, वो रश्मि-किरण,
लहराते इठलाते, घन,
डोले जो आसन, टूटे जो संयम,
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
लुभाए, आँगन की ये रश्मियाँ!

तन, हो भी जाए वैरागी, पर ये मन कहाँ!
निमंत्रण दे, लास्य रचाते ये क्षण,
आबद्ध करे, आकर्षण,
डोले जो आसन, टूटे जो संयम,
फिर दोष कहाँ!

लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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लास्य का अर्थ:
- शास्त्रीय संगीत का एक रूप जिसमें कोमल और मधुर भावों तथा श्रृंगार रस की प्रधानता होती है
- एक स्त्रीसुलभ लालित्यपूर्ण नृत्य (तांडव जैसे पुरुष-प्रधान नृत्य के विपरीत)।
नाच या नृत्य के दो भेदों में से एक । वह नृत्य जो भाव और ताल आदि के सहित हो, कोमल अंगों के द्वारा  की जाती हो और जिसके द्वारा श्रृंगार आदि कोमल रसों का उद्दीपन होता हो । 
- साधरणतः स्त्रियों का नृत्य ही लास्य कहलाता है । कहते है, शिव और पर्वती ने पहले पहल मिलकर नृत्य किया था । शिव का नृत्य तांडव कहलाया और पार्वती का 'लास्य'।
लास्य के भी दो भेद हैं— छुरित और यौवत । नायक नायिका परस्पर आलिंगन, चुंबन आदि पूर्वक जो नृत्य करते हैं उसे छुरित कहते हैं । एक स्त्री लीला और हावभाव के साथ जो नाच नाचती है उसे यौवत कहते हैं । 
- इनके अतिरिक्त अंग प्रत्यंग की चेष्टा के अनुसार ग्रंथों में अनेक भेद किए गए हैं ।साहित्यदर्पण में इसके दस अंग बतलाए गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं - गेयपद, स्थितपाठ, आसीन, पुष्पगंडिका, प्रच्छेदक, त्रिगूढ़, सैंधबाख्य, द्विगूढ़क, उत्तमीत्तमक और युक्तप्रयुक्त ।

20 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2099...कभी पछुआ बहे तो कभी पुरवाई है... ) पर गुरुवार 15अप्रैल 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय रवीन्द्र जी

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  2. सुन्दर रचना ... मन बैरागी नहीं हो पाता ..... हर क्षण , हर पल आप हर जगह नृत्य को महसूस कर रहे तो मन कैसे वीतरागी हो सकता है ...

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया संगीता जी

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-04-2021 को चर्चा – 4037 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय दिलबाग जी

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  4. दूर कहीं, तुम हो,
    जैसे, चाँद कहीं, सफर में गुम हो! आपकी सुंदर रचना को कई बार पढ़ा,उम्दा, उत्कृष्ट कृति,अभी मैने अपने देवी गीत पर आपके प्रशंसनीय प्रतिक्रिया से सुखद अनुभूति हुई,जिसके लिए आपकी आभारी हूं,समय मिले तो मेरे गीत के ब्लॉग पर पधारें,सादर नमन ।

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    1. शुक्रिया जिज्ञासा जी। आपके लेखन विधाओं का प्रशंसक हूँ। ।।।।
      आपका निमंत्रण सहर्ष स्वीकार है।।।। अवश्य ही आता हूँ। ।।।

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  5. बहुत सुन्दर।
    चैत्र नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया । आभार।

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  7. लास्य रचाते, जीवन के उन्मुक्त क्षण यहाँ,
    तन कुम्हलाए, पर ये मन कहाँ!

    बहुत सुंदर रचना...🌹🙏🌹

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया । आभार।

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