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Sunday 2 June 2019

देवदार

यशस्वी है, तपस्वी है देवदार,
एकाकी युगों से,
आच्छादित वन में कब से,
है देवों का वो हृदयेश.....

युगों-युगों, वीरान पहाड़ों पर,
फैला कर बाँहें,
लहराकर विशाल भुजाएँ,
कर रहा वो अभिषेक....

निर्विकार कितने ही वर्षों तक,
तप किए उसने,
चाह में आराध्य की अपने,
साध किए अतिरेक...

सम्मुख होकर गगन की ओर,
तकते हैं वो नभ,
आ जाएँ आराध्य शायद,
ख्वाब यही अधिशेष.....

अधूरे या, रूठे से होंगे ख्वाब,
उम्मीदें हैं शेष,
अब भी साँसें ले रही हैं,
अरमानों के अवशेष.....

यशस्वी है, तपस्वी है देवदार,
है साधना-रत,
युगों-युगों से है अनुरक्त,
कामनाएँ है अशेष.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 25 May 2019

अधूरे ख्वाब

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

संदली राह, मखमली चाह, मदभरी निगाह है,
अनबुझ सी, वही इक प्यास है,
अधूरा सा है, वही ख्वाब है...

बुन लाता ख्वाब सारे, चुन लाता मैं वही तारे,
बस, स्याह रातों सा हिजाब है,
बवंडर सा है, इक सैलाब है...

यूँ ही रहे गर्दिशों में, बेरहम वक्त के रंजिशो में,
उभरते से रहे, वो ही तस्वीरों में,
एक अक्श है, वही निगाह है....

जल जाते हैं वो, जुगनुओं सा चिराग बनकर,
उभर आते हैं, कोई याद बन कर,
एक जख्म है, वही रिसाव है...

वक्त के इस मझधार में, पतवार बस एक था,
उफनती धार में, नाव बस एक था,
वो ही भँवर है, वही प्रवाह है....

सत्य था, या झूठ था, तलाश बस वो एक था,
द्वन्द के धार मे, नाव बस एक था,
वही प्रवाह है, वही दोआब है....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 9 May 2019

वही पगडंडियाँ

है ये वही पगडंडियाँ ....
चल पड़े थे जहाँ, संग तेरे मेरे कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, टूटे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं, उन ख्वाबों से हम,
उन्ही पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
हवाओं नें बिखराए, तेरे आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं, उनकी तन्हाईयाँ,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
तोड़ डाले जहाँ, मन के सारे भरम,
हुए थे जुदा, तुम और हम,
और दिल ने सहे, वक्त के कितने सितम,
चलो जोड़ आएं, हम वो भरम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

है ये वही पगडंडियाँ ....
जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद फिर बने, नए भ्रम के समीकरण,
चलो फिर से करें, नए वादे हम,
उन्हीं पगडंडियों पर!

(Reincarnation of "वादों का नया संस्करण")
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 19 April 2019

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 17 March 2019

हजार नज्म

वो मिल गए, ख्वाबों नें कर लिया श्रृंगार!

चटकने लगी, मन की कली,
कुछ कहने लगी, चुप-चुप सी हर गली,
रंग राहों में, बिखरे हजार,
तन्हाईयाँ, करने लगी बातें हजार...

वो मिल गए, ख्वाबों नें कर लिया श्रृंगार!

खूबसूरत हुए, कई सिलसिले,
चला जादू कोई, हर राह वो ही मिले,
छाने लगा, कोई खुमार,
सताने लगे, वो ही सपनों में यार.....

वो मिल गए, ख्वाबों नें कर लिया श्रृंगार!

है ये सच, या है मेरा ही भरम,
यूँ सँवरते रहे, उन्हीं के ख्वाब में हम,
बसा इक, नया सा संसार,
नज्म ख्वाबों के, बिखरे हजार....

वो मिल गए, ख्वाबों नें कर लिया श्रृंगार!

( इस ब्लॉग पर मेरी 1000 वीं प्रविष्टि)
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

हलचल-पाँच लिंकों का आनंद द्वारा प्रशंसित

Saturday 2 March 2019

रुबरु

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

चंद लम्हे ही रहे, बस वो साथ मेरे,
ऐसा लगा, जैसे वो है कितने खास मेरे,
जग से गए, सोए एहसास मेरे
उम्र सारी, जीने लगे सारे ख्वाब मेरे!

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

रुबरु इक आवाज, हुआ साथ मेरे,
हर-पल गूँज बनकर, वो रहा साथ मेरे,
मधु सी मिठास, बातों में भरे,
अब न रहते उदास, सारे ख्वाब मेरे!

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

न जाने, ये क्या हुआ था साथ मेरे,
ऐसा लगा, मैं खुद न था अब साथ मेरे,
कुछ मेरा, अब न था पास मेरे,
रुबरु यूँ हुए, मुझसे सारे ख्वाब मेरे!

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 12 February 2019

मासूम शब्द

शब्दों को, खुद संस्कार तो ना आएंगे!

शब्दों का क्या? किताबों में गरे है!
किसी इन्तजार में पड़े है,
बस इशारे ही कर ये बुलाएंगे,
शब्दों को, खुद ख्वाब तो ना आएंगे,
कुंभकर्ण सा, नींद में है डूबे,
उन्हें हम ही जगाएंगे।

दूरियाँ, शब्दों से बना ली है सबने!
तड़प रहे शब्द तन्हा पड़े,
नई दुनियाँ, वो कैसे बसाएंगे,
किताबों में ही, सिमटकर रह जाएंगे,
चुन लिए है, कुछ शब्द मैनें,
उनकी तन्हाई मिटाएंगे।

वरन ये किताबें, कब्र हैं शब्दों की!
जैसे चिता पर, लेटी लाश,
जलकर, भस्म होने की आस,
न भय, न वैर, न द्वेष, न कोई चाह,
बस, आहत सा इक मन,
ये लेकर कहाँ जाएंगे।

चलो कुछ ख्वाब, शब्दों को हम दें!
संजीदगी, चलो इनमें भरें,
खुद-ब-खुद, ये झूमकर गाएंगे,
ये अ-चेतना से, खुद जाग जाएंगे,
रंग कई, जिन्दगी के देकर,
संजीदा हमें बनाएंगे।

वर्ना शब्दों का क्या? बेजान से है!
चाहो, जिस ढ़ंग में ढ़ले हैं,
कभी तीर से, चुभते हृदय में,
कभी मरहम सा, हृदय पर लगे हैं,
शब्द एक हैं, असर अनेक,
ये पीड़ ही दे जाएंगे।

शब्दों को, खुद संस्कार तो ना आएंगे?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 14 November 2018

अजनबी चाह

बाकी रह गई है,
कोई अजनबी सी चाह शायद....

है बेहद अजीब सा मन!
सब है हासिल,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है खास वो,
दूर है,
पर है पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ गुजर रहे हैं, चाह शायद!

सफर में साथ में,
रहते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

मौन है ये, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी सुप्त ये,
है कभी जीवन्त ये,
अन्तहीन सा,
प्रवाह अनन्त ये,
आस-पास ये
मन ही, किए वास ये,
कभी आहटों से,
तोडती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

अजनबी से इस राह में!
यूँ तो मिला मैं,
कई अजनबी सी चाह से,
कुछ प्रबल हुए,
कुछ बदल से गए,
कुछ गुम हुए,
कुछ पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे हैं, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

Thursday 25 October 2018

यही थे राह वो

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

वक्त के कदमों तले, यही थे राह वो,
गुमनाम से ये हो चले अब,
है साथ इनके, वो टिमटिमाते से तारे,
टूटते ख्वाबों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बिछड़े है जो कही, यही थे राह वो,
संग मीलों तक चले जो,
किस्से सफर के सारे, है आधे अधूरे,
तन्हा बातों के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो.....

बदलते मौसमों मे, यही थे राह वो,
बहलाती हैं जिन्हें टहनियाँ,
अधखिले से फूल, सूखी सी कलियाँ,
शूल-काटो के सहारे,
ये राह सारे, अब है पतझड़ के मारे.....

चले थे सदियों साथ जो, यही थे राह वो....

Thursday 2 August 2018

तू, मैं और प्यार

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

मैं, स्तब्ध द्रष्टा,
तू, सहस्त्र जलधार,
मौन मैं,
तू, बातें हजार!

संकल्पना, मैं,
तू, मूर्त रूप साकार,
लघु मैं,
तू, वृहद आकार!

हूँ, ख्वाब मैं,
तू, मेरी ही पुकार,
नींद मैं,
तू, सपन साकार!

ठहरा ताल, मैं,
तू, नभ की बौछार,
वृक्ष मैं,
तू, बहती बयार!

मैं, गंध रिक्त,
तू, महुआ कचनार,
रूप मैं,
तू, रूप श्रृंगार!

शब्द रहित, मैं,
तू, शब्द अलंकार,
धुन मैं,
तू, संगीत बहार!

ऐसा ही है कुछ,
तेरा प्यार...

Sunday 17 June 2018

दो पग साथ चले

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

ख्वाब हजारों आकर मुझसे मिले,
जागी आँखों में अब रात ढ़ले,
संग तारों की बारात चले,
सपनों में अब मन को आराम मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

कब दिन बीते जाने कब रैन ढले,
उम्मीद हजारो हम बांध चले,
उस पथ मेरे अरमान चले,
तुमको ही हम अपना मान चले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

पथ उबड़-खाबड़ मखमल से लगे,
पग पग कितने ही फूल खिले,
ये ख्वाब हकीकत में ढ़ले,
कितनी ही जन्मों के सौगात मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

Sunday 27 May 2018

क्या है ख्वाब ये

ये हकीकत है कोई, या है बस इक ख्वाब ये?

इक धुंधलाती सी परछाईं,
मद्धम सी गूंजती कोई मधुर आवाज,
छुन-छुन पायलों की धुन,
चूड़ियों की चनकती खनखनाहट,
करीब से छूकर गुजरती कोई पवन,
मदहोश करती वही खुश्बू...
है ये कोई वहम या फिर कोई जादू!
या है बस इक ख्वाब ये?

कही उठ रहा है धुंध कोई,
जैसे बिखेरा है किसी ने आँचल कहीं,
या नेह का है ये निमंत्रण,
या मन को लुभा रहा है कोई युं ही!
बज रही हो जैसे कोई अनसुनी सरगम,
गुनगुनाने लगी हो हवाएँ...
है ये कोई भरम या कहीं अपना कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

कोई चुपके से कहे, ऐ सुन!
मद्धिम सी बजने लगी फिर वही धुन,
मैं मूकद्रष्टा सा खोलूं नयन,
रोककर साँसें गिनूं दिल की धड़कन,
भटकता फिरूं मैं, जैसे आवारा बादल,
लिए पहलू में आँचल कोई...
है ये कोई वहम या है हमारा कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

तो फिर ये इशारे हैं किसके,
आसमान पर ये सारे तारे हैं किसके,
भीगा सा है क्यूं ये गगन,
चटक कर खिली है क्युं ये कलियां,
फूलों के अंग-अंग क्यूं निखरे है आज?
कोयल ने क्यूं छेड़ी है तान....
है ये कोई भरम या है कोई न कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

ये हकीकत है कोई, या है बस इक ख्वाब ये?

Tuesday 15 May 2018

बेख्याल

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल में,
कई ख्वाब देख डाले, हम यूं ही ख्वाब में........

वो रंग है या नूर है,
जो चढता ही जाए, ये वो सुरूर है,
हाँ, वो कुछ तो जरूर है!
यूं ही हमने देख डाले,
हाँ, कई रंग ख्वाब में!

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल मे...

ये कैसे मैं भूल जाऊँ?
है बस ख्वाब वो, ये कैसे मान जाऊँ?
हाँ, कहीं वो मुझसे दूर है!
यूं ही उसने भेज डाले,
हाँ, कई खत ख्वाब में!

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल मे...

है वो चेहरा या है शबनम!
हुए बेख्याल, बस यही सोचकर हम!
हाँ, वो कोई रंग बेमिसाल है!
यूं ही हमने रंग डाले,
हाँ, जिन्दगी सवाल में!

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल में,
कई ख्वाब देख डाले, हम यूं ही ख्वाब में........

Saturday 12 May 2018

क्या हो तुम

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

क्यूं मैं हूं, इक तुम्हारे ही आस में?
कभी कुछ पल जो आओ अंकपाश में,
बना लूं वो ही लम्हा खास मैं,
भूल जाऊँ मैं खुद को, कुछ पल तुम्हारे साथ में...

हो सुबह या सघन रात हो,
सांझ हो या प्रभात हो,
धूप या बरसात हो,
या चुप सी कोई बात हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

हो बेहोश या मदहोश हो,
मूरत सी खामोश हो,
चटकती कली हो,
या बंद लफ्जों में ढ़ली हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

यूं जेहन में आ बसी हो,
खुश्बुओं में रची हो,
या रंगों में ढ़ली हो,
क्या बस इक ख्वाब हो,
जो भी हो, तुम लाजवाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

तन्हा पलों की संगिनी हो,
जैसे कोई रागिनी हो,
कूक कोयल की हो,
दूर से आती आवाज हो,
जो भी हो, तुम लाजवाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

स्नेह की कोई लड़ी हो,
या चहकती सी परी हो,
सहज हो शील हो,
या खुदा का आब हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

क्यूं मैं हूं, इक तुम्हारे ही आस में?
कभी कुछ पल जो आओ अंकपाश में,
बना लूं वो ही लम्हा खास मैं,
भूल जाऊँ मैं खुद को, कुछ पल तुम्हारे साथ में...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

Sunday 1 April 2018

बिखरी लाली

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगकिरणों ने पट खोले हैं,
घूंधट के पट नटखट नभ ने खोले हैं,
बिखर गई है नभ पर लाली,
निखर उठी है क्षितिज की आभा,
निस्तेज हुए है अंधियारे,
वो चमक रही किरणों की बाली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगार कर रही है प्रकृति,
किरणों की आभा पर झूमती संसृति,
मोहक रंगो संग हो ली,
सिंदूरी स्वप्न के ख्वाब नए लेकर,
नव उमंग नव प्राण लेकर,
खेलती नित नव रंगो की नव होली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

खेलती है लहरों पर किरणें,
या लहरों से कुछ बोलती हैं किरणें!
आ सुन ले इनकी बोली,
झिलमिल रंगों की ये बारात लेकर,
मीठी सी ये बात लेकर,
चल उस ओर चलें संग आलि!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

Sunday 7 January 2018

बिछड़े जो अब

अबकी जो बिछड़े, तो ख्वाबों में ही मिलेंगे कहीं..

शाख पर लिपटती बेलें यूँ ही कुछ कह गई,
ढलती रही सांझ ख्यालों में ही कहीं,
कोई भीनी सी हवा तन को छूकर थी गई,
दस्तक दबे पांव देकर गया था कोई,
ये सरसराहट सी हवाओं मे अब कैसी?
क्या है ये भरम? या है मेरा ख्वाब ये कोई?

आ मिल कहीं, सौदा ख्वाबों का हम करें यूँ ही ....

जिक्र करें, ये मन के भरम कब तक धरें..
मिल कर कहीं, हम यूँ ही बैठा करें,
कह लें वही, अबतक जो हम कह न सके,
मन ही मन यूँ तन्हा हम क्यूँ जलें?
कुछ खैरों खबर लें, मन की सबर लें,
ख्वाब से ख्वाब का, यूँ तुझ संग सौदा करें.....

यूँ ही लौट आएंगी, बँद होठों पे चहकती हँसी....

देखो ना! उस सांझ हलचल सी क्या हुई?
बेनूर सी रुत हुई, ये घड़ी, ये शाम भी,
ये सदाएँ मेरी, गुनगुना न फिर सकी कभी,
हृदय के तार, फिर न झंकृत हुई कभी,
ढलती रही हर शाम, फिर यूँ ही बेरंग सी,
अब जो गई शाम, फिर लौट न आएंगे कभी.....

अबकी जो बिछड़े, तो ख्वाबों में ही मिलेंगे कहीं.....

Tuesday 26 December 2017

ख्वाब में

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
बह रही थी ये कश्ती फिर उसी चिनाब में,
देखता हूँ मैं आपको,
कभी मझधार के हिजाब में,
या कभी आइने से बहते कलकल आब में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
ये आ गया हूँ मैं कहाँ, पतवार थामे हाथ में,
हसरतों के आब में,
खाली से किसी दोआब में,
या आपकी यादों के किसी अछूते महराब में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

आपके ही ख्वाब में......
सूखे से वो फूल, जग परे मेरी ही किताब में,
वो देखते हैं बाग में,
खोए है यादों के सैलाब में,
या संजोए हैं ये सपने, टूटकर अपने आप में....

कहीं यूँ ही बहते रहे हम बस हसरतों के आब में......

Wednesday 20 December 2017

ख्वाबों के घर

वो ख्वाबों के घर, है शायद कहीं किसी रेत के शहर....

है अपरिच्छन्न ये, सदा है ये आवरणविहीन,
अनन्त फैलाव व्यापक सीमाविहीन,
पर रहा है ये घटाटोप रास्तों पर,
सघन रेत के आवरणविहीन बसेरों पर,
रेत का ये शहर, भटकते है हम अपवहित रास्तों पर...

है ख्वाब ये, कब हकीकत बना है ये यार?
टूटा है ये, फिर से बना है बार बार,
हो चुका है फना, ये हजार बार,
बेमिसाल, फिर बनता रहा है ये हर बार,
रेत का ये शहर, फिर भी लग रहा सदा ही ये उजाड़....

है बस धूँध ये, हर तरफ उठ रहा है धुआँ,
न जाने किस जानिब, मंजिल है कहाँ,
अपवहित से उन रास्तों पर,
भटकते रहे है ये दरबदर सदा,
रेत का ये शहर, है किसको खबर लिए जाए ये कहाँ ...

है परित्यक्त ये, परिगृहीत न हुआ ये कभी,
मध्य रेत के डहडहाता रहा फिर भी,
ये ख्वाब हैं, जिद्दी परिंदों से,
सघन रेत पर भी खिल ही आएंगे,
रेत का ये शहर, अपलाप कर भी न इसे मिटा पाएंगे...

Tuesday 13 June 2017

ख्वाब जरा सा

तब!..........ख्वाब जरा सा मैं भी बुन लूंगा!

कभी चुपके से बिन बोले तुम आना,
इक मूक कहानी सहज डगों से तुम लिख जाना,
वो राह जो आती है मेरे घर तक,
उन राहों पर तुम छाप पगों की नित छोड़ जाना,
उस पथ के रज कण, मैं आँखों से चुन लूंगा,
तेरी पग से की होंगी जों उसने बातें,
उनकी जज्बातों को मैं चुपके से सुन लूंगा,
तब ख्वाब जरा सा मैं भी बुन लूंगा!

मृदुल बसन्त सी चुपके से तुम आना,
किल्लोलों पर गूँजती रागिणी सी कोई गीत गाना,
वो गगन जो सूना-सूना है अब तक,
उस गगन पर शीतल चाँदनी बन तुम छा जाना,
साँझ से शरम, प्रभात से प्रभा मैं ले आऊँगा,
तुमसे जो ली होंगी फूलों ने सुगंध,
वो सुगंधित वात मैं इन सासों में भर लूँगा,
तब ख्वाब जरा सा मैं भी बुन लूंगा!

Wednesday 10 May 2017

इक खलिश

पलकें अधखुली,
छू गई सूरज की किरण पहली,
अनमने ढंग से फिर नींद खुली।।।
मन के सूने से प्रांगण में दूर तलक न था कोई,
इक तुम्हारी याद! निंदाई पलकें झुकाए,
सामने बैठी मिली...!

मैं करता रहा,
उसे अपनाने की कोशिश,
कभी यादों को भुलाने की कोशिश…
रूठे से ख्वाबों को निगाहों में लाने की कोशिश,
तेरी मूरत बनाने की कोशिश…
फिर एक अधूरी मूरत....!

क्या करूँ?
सोचता हूँ सो जाऊँ,
नींद मे तेरी ख्वाबों को वापस बुलाउँ,
फिर जरा सा खो जाऊँ,
मगर क्या करूँ...
ख्बाब रूठे है न मुझसे आजकल....!

इन्ही ख्यालों में,
इक पीड़ सी उठी है दिल में,
चाह कोई जगी है मन मॆं,
अब तोड़ता हूँ दिल को धीरे धीरे तेरी यादों में,
वो क्या है न, चाहत में...
रफ्ता रफ्ता मरने का मजा ही कुछ और है...!