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Tuesday 4 October 2016

प्यार भरी कोई बात

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

जागे हैं अनदेखे से सपने....ये खयालात हैं कैसे,
अनछुए से मेरे धड़कन.........पर ये एहसास हैं कैसे,
अन्जाना सा चितवन...ये तिलिस्मात हैं कैसे,
बहकते कदम हैं किस ओर, ये अंजान है कैसे?

जीवन के.....इस अंजाने से डगर पर,
उठते है ज्वर ....झंझावातों के.........किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश करता सपनों में कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख.. सपनों की ...होती है बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती है फिर वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

अंजानी उस बुत से.....होती हैं फिर बातें,
बसती है छोटी सी दुनियाँ...फलक पे अंजाने से,
घुलती है साँसों में....खुश्बु इक हौले से,
बज उठते हैं फिर तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले कौन इसे, रोके ...इसे कोई कैसे,
एहसासों...की है ये बारात, अरमाँ हैं बहके से,
रिमझिम सी उस पर ये बरसात, हौले से,
मचले से हैं ये जज्बात, समझाएँ इसे फिर कैसे?

शायद, दबी सी मन में है कोई बात, ये कैसे हैं जज्बात?

Wednesday 10 August 2016

उभरते जख्म

शब्दों के सैलाब उमरते हैं अब कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते है ये शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

अंजान राहों पे शब्दों ने बिखेरे थे ख्वाबों को,
हसरतों को पिरोया था इस मन ने शब्दों की सिलवटों से,
एहसास सिल चुके थे शब्दों की बुनावट से,
शब्दों को तब सहलाया था हमने कलम की नोक से।

ठोकर कहीं तभी लगी इक पत्थर की नोक से,
करवटें बदल ली उस एहसास ने शब्दो की चिलमनों से,
जज्बात बिखर चुके थे शब्दों की बुनावट से,
कुचले गए तब मायने शब्दों के इस कलम की नोक से।

अंजान राहों पर भटक चले थे कलम की नींव ये,
शब्दो को बेरहमी से तब कुचला था कलम की नींव ने,
मायने शब्दों के बदल चुके बस एक ठोकर से,
जज्बात नहीं सैलाब उमरते है अब कलम की नोक से।

शब्दों के सैलाब उमरते गए कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते रहे शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

Monday 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Saturday 30 July 2016

मन की मन में रही

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

बात कोई अनकही क्यों कभी उस ने गढ़ी?
कह न सके लफ्जों में जिसे मन सदा कहता वही,
झाँकता कोई मन में अगर देखता वो अनकही,
टटोलता मन को अगर जानता मन की कही,
कौन सुने मन की मगर, बात रही बस मन में दबी!

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

अनकही बातों से ही, रचता है मन इक दुनियाँ नई,
खिलते हैं यहाँ कितने ही कँवल, जिसे देखता कोई नहीं,
बहती हैं धार करुणा की यहाँ, जिसे जानता कोई नहीं,
दर्द में कभी रोता भी मन, आहें यहाँ कितनी छुपी,
मन की गरज किसको मगर, मन की सदा मन में रही!

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

दुनियाँ की इस भीड़ में, मन तो है इक अजनबी,
है फुर्सत किसको यहाँ, झाँकता कोई मन में नहीं,
झंकार सिक्कों की मगर, जानता है हर कोई,
हालात के मारे हैं सब, जज्बात मन के है यहाँ दुखी,
क्या मारकर मन को यहाँ, जी रहें दुनियाँ में सभी....?

अब कौन सुने मन की? मन की कही बस मन में रही!

Monday 25 July 2016

कोरे जज्बात

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं......कोरे जज्बात?

कोरा.....ये मेरा मन....., पर ये जज्बात हैं कैसे,
अनछुए..... से मेरे धड़कन..,,, पर ये एहसास हैं कैसे,
अनजाना.... सा यौवन...., पर ये तिलिस्मात हैं कैसे,
मन खींचता जाता किस ओर, ये अंजान है कैसे?

यौवन की.....,, इस अंजानी दहलीज पर,
उठते है जज्बातों के.........ये ज्वार.... किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश कर जाता मन को कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख... सपनों की ...होती है फिर बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती फिर मन में वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

फिर उस अंजानी बुत.....की ही होती बस बातें,
कहीं तारों के उपर...बस जाती मन की छोटी दुनियाँ,
साँसों में घुलती....खुश्बू फिर इक अंजानी सी,
गा उठते हैं जज्बात नए तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले ...अब कौन इसे, रोके ...कौन इसे कैसे,
बहके से हैं....ये जज्बात, एहसासों...की है ये बारात,
कोरा सा ये मन...रिमझिम सी उसपर ये बरसात,
सुलगी है आग मचले हैं ये जज्बात, माने ये फिर कैसे?

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं.......कोरे जज्बात?

Friday 24 June 2016

छाया अल्प सी वो

बुझते दीप की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

प्रतीत होता जिस क्षण है बिल्कुल वो पास,
पंचम स्वर में गाता पुलकित ये मन,
नृत्य भंगिमा करते अस्थिर से दोनों ये नयन,
सुख से भर उठता विह्वल सा ये मन,
लेकिन है इक मृगतृष्णा वो रहता कब है पास....

उड़ते बादल की लघु सी प्रच्छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात.....

क्षणिक ही सही जब मिलते हैं उनसे जज्बात,
विपुल कल्पनाओं के तब खुलते द्वार,
पागल से हो जाते तब चितवन के एहसास,
स्मृति में कौंधती है किरणों की बौछार,
लेकिन वो तो है खुश्बु सी बहती सुरभित वात..,,

क्षणिक मेघ की अल्प सी छाया वो,
साथी! उस छाया से मिलना बस सपने की बात..

Saturday 30 April 2016

किस गगन की ओर

ये खुला आसमाँ, पुकारता है अब किस गगन की ओर?
उड़ने लगे हैं जज्बातों के गुब्बारे आसमान में,
पंख पसारे उमरते अरमानों के रथ पर,
ये एहसास कैसे उठ रहे हैं अब इस ओर..............!

मन कब रुका है, उड़ चला ये अब उस गगन की ओर!
रुकने लगे हैं जज्बात ये मन के ये किस गाँव मे,
वो गाँव है क्या, उस नीले गगन की छाँव में,
छाँव वो ही ढूंढ़ता, मन ये मेरा उस ओर.......!

रोक लूँ मैं जज्बात को, क्युँ चला ये उस गगन की ओर,!
कोई थाम ले उन गुब्बारों को उड़ रहा है जो बेखबर,
क्युँ थिरकता बादलों में, लग न जाए उसको नजर,
वो उड़ रहा बेखबर, अब किस गगन की ओर.....!

धड़कनें बेताब कैसी, कह रहा चल उस गगन की ओर!

Friday 29 April 2016

कह भी देेते

हसीन सी होती ये जिन्दगी, कह भी देते जो बात वो।

कहीं कुछ तो है जो कह न पाए है वो,
कोई बात रुक गई है लबों पे आ के जो,
बन भी जाती इक नई दास्ताँ, कह भी देते जो बात वो।

चुप चुप से वो बैठे लब क्युँ सिले हैं वो,
जाने कब से इन सिलसिलों में पड़े हैं वो,
हँस भी देती ये खामोशियाँ, कह भी देते जो बात वो।

ये जरूरी नही कि कह दें मन की बात वो,
कह देती हैं सब ये नजरें, चाहे हों जज्बात जो,
रोके रुके हैं कब जज्बात ये, कह भी देते जो बात वो।

कुछ और होती ये जिन्दगी, कह भी देते जो बात वो।

Monday 25 April 2016

वो अंजान से

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

मेरे हृदय की बेमोल व्यथा कौन सुनता है यहाँ,
कितने ही अलबेले तरंग हरपल मन में पलते यहाँ,
मिथ्या सी लगती हैं सारी अनकही कहानियाँ,
कुछ इस तरह ही रही गुजरते लम्हों की मेरी दास्ताँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

साँसो की वलय कितने ही इस पल को हैं मिले,
कितने ही सपनों ने आँखों में छुपकर ही दम तोड़े,
जज्बातें हरपल पिसती रही इस मन के भीतर,
कुछ इस तरह रही जिन्दगी के लम्हों की पूरी कारवाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

अब मैं हूँ और संग मेरे कठोर हो चुका मेरा हृदय,
अनकही कहानियाें की टूटी दीवारे बिखरी हुई हैं यहाँ,
लम्हा-लम्हा गुजरे वक्त का बिखरा सूना सा यहाँ,
कुछ इस तरह रही अनसुनी हृदय की अधूरी कहानियाँ।

मैं हृदय की कहता ही रहा, वो अंजान से बने रहे सदा...

Sunday 17 April 2016

मेरे जज्बात

मैं बार-बार सोचता हूँ! मैं क्युँ न बन पाया उस हृदय और मन सा?

विश्वास की डोर हो या अधिकार या कहें कुछ और,
साथ समय के बदल जाते है यहाँ सब कुछ,
रिश्ते भावनाओं के हों, या हो बेनाम, या कुछ और!

एहसास बदल जाते है, कभी अन्जाने से रिश्तों में,
कभी रिश्ते बदल लेते हैं, जज्बातों के एहसास,
हृदय नही वो पत्थर हैं, बदल लेते है जो जज्बात!

कई बार मन सोचता है! एक ईन्सान के हैं कितने रूप ?

कभी भ्रम पैदा करता वो गहरे एहसासों का,
अपनेपन की बदलते मुखौटों में कभी वो मुस्काता,
जज्बातों को सहलाता अपनी मीठी बोली में तोलकर।

रिश्तों को परिभाषित करता अपनी जरूरतों में हर पल,
जज्बातों की गहराई से खेलता सँवारता अपना आनेवाला कल,
बदलते रिश्तों की इस दुनियाँ में, विश्वास ढ़ूढ़ता अपना ठौर।

वो हृदय! स्वरूप कैसा होगा उस हृदय की कोटरी का?
विश्वास की अधूरी धुन पर जो जानता है बखूबी धड़कना,
उसका मन? कैसा स्वरूप होगा उस इन्सान के मन का?

मैं बार-बार सोचता हूँ! मैं क्युँ न बन पाया उस हृदय और मन सा?

Saturday 9 April 2016

शब्द

फैले हैं जाल शब्द के, मायने उलझती ही रहीं!

शब्द बच गए थे पोटली में,
बातें इक तरफा ही रहीं,
शेष बातों के लिए शब्द तड़पती ही रहीं!

अब बिन मायनों के शब्द वे,
इकहरे दुबले पतले से,
पोटली के दायरों में शब्द सिमटती ही रही!

उस शब्द की विसात क्या,
सुन न पाए हम जिन्हे,
जज्बात विखरते रहे शब्द विलखती ही रही!

खोल दी है मैनें उस पोटली को,
खुल के साँस शब्द लें सकें,
व्यक्त हो रहे भाव अब शब्द हँसती ही रही!

पर ये क्या?

शब्द ही उलझे है शब्द से,
जाल शब्दों के बने,
एहसास शिथिल हैं अब शब्द बिखरती रही!

Friday 1 April 2016

कहानियाँ

जीवन के विविध जज्बातों से जन्म लेती हैं कहानियाँ।

कहानियाँ लिखी नहीं जाती है यहाँ,
बन जाती है खुद ही ये कहानियाँ,
हम ढ़ूंढ़ते हैं बस अपने आप को इनमे यहाँ,
यही तो है तमाम जिंदगी की कहानियाँ।

किरदार ही तो हैं बस हम इन कहानियों के,
रंग अलग-अलग से हैं सब किरदारों के,
कोई तोड़ता तो कोई बनाता है घर किसी के,
नायक या खलनायक बनते हम ही जिन्दगी के।

भावनाओं के विविध रूप रंग में ये सजे,
संबंधों के कच्चे रेशमी डोर में उलझे,
पल मे हसाते तो पल मे आँसुओं मे डुबोते,
मिलन और जुदाई तो बस पड़ाव कहानियों के।

आँखों मे आँसू किसी के यूँ ही नहीं छलकते,
जज्बात दिलों के कुछ कहते हैं रो रो के,
कहानियाँ कह जाती है ये व्यथा इस मन के,
खुशी और गम में ही छुपे कहानियाँ जिन्दगी के।

कहानियाँ लिखी नहीं जाती बनती है खुद ही कहानियाँ।

Saturday 26 March 2016

तुम दीप जलाने ना आई

तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया!
हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया!

प्रज्जवलित सदियों से एक दीप ह्रदय में,
जलता बुझ-बुझ कर साँसों की लौ मेंं,
नीर हृदय के लेकर जल उठता धू-धू कर मन में,
सूखे हैं अब वो नीर बुझ रहा दीप इस हिय में ।

तूम आ जाते जल उठता असंख्य दीप जीवन में,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

निर्झर नीर जज्बातों का बह रहा चिर निरंतर,
रुकता है ये कब अरकंचन के पत्तों पर,
अधूरी प्यास हृदय की प्यासी सागर के इस तट पर,
आकुल प्राणों के कण-कण किसकी आहट पर।

तुम आ जाते जल उठता दीप हृदय के इस तट पर,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया।

Friday 25 March 2016

धागे जज्बातों के

कितनी ही बातें हैं.......
दिल में कहने को,कोई सुन ले तो आकर!
धागे जज्बातों के.....
उलझे हैं, थोड़ा इनको सुलझा लें तो जाकर।

व्यथा के आँसू......
क्युँ सूखे हैं, थोड़ा इनको बह जाने दो झरकर,
चंद रातें ही बची हैं.....
जीने को, थोड़ा सा तो हँस लेने दो जी भरकर,

इतने पहरे क्युँ......
जीने पर, जज्बातों को मुखरित तू कर,
बात दबी सी जो........
दिल में, कह दे खुले व्योम में जाकर।

चंदन बना तू........
आँसुओं के, जीवन की बहती धारा में घिसकर,
व्यथा तो बस......
इक स्वर है, बाकी के सप्त स्वर तू कर प्रखर।

कितनी ही बातें हैं.......
दिल में कहने को,कोई सुन ले तो आकर!

Wednesday 13 January 2016

अधूरा स्वप्न

बिखरे थे राहों में कुछ फूलों जैसे शय,
दुर्दशा देख द्रवित हो रूंध उठा हृदय,
हुई विह्वल आँखें मन को बांधु तो कैसे,
भाव प्रवण दामन मे समेट लिया ऐसे।

बसा लिया उस फूल को फिर हमने,
हृदय के अन्दर सुदूर कोने में कहीं,
महसूस हुआ स्पर्श उन फूलों सा ही,
व्यथा उसके मन की है अब मेरी ही।

भ्रम टूटा जब चुभन काँटो की हुई,
उसकी भी अपनी कोई आपबीती,
भूत के गर्त से निकल समक्ष आई,
सपन मृदु टूटे आँखे विह्वल हो आईं।

मृदुलता के कुछ क्षण साथ हमने थे बाँटे,
चुपके से दामन मे चुभ गए थे कुछ काँटे,
संशय भ्रम उन स्वप्नों के पर अब हैं छूटे,
क्या हुआ जब दिल किसी बात पर टूटे।

Saturday 9 January 2016

एक जोगन या विरहन?


एक अधेर औरत!
शायद जोगन या विरहन?
नदी किनारे बैठी वर्षों से,
अपलक देखती धारों के उस पार,
आँखें हैं उसकी पथराई सी,
होंठ सूखे हुए कपड़े चीथड़े से,
पर बाल बिलकुल सँवरे से,
शायद उसे किसी के लौटने का,
अन्तहीन, अनथक इंतजार है।

हजारों आने-जाने वाले,
कई सिर्फ उसे देख गुजर जाते,
पर कोई उसे टोकता नही,
उसके अन्दर छुपे,
मर्म पीड़ा को सुनने समझने की,
शायद किसी को जरूरत नही।

इलाके में नया था मैं,
कुछ दिनों से रोज,
मैं देखता उसकी ओर
और आनेजाने वालों को भी,
अकुलाहट सी होती, कई प्रश्न उठते,
मन के अन्दर, फिर सोचता,
शायद मनुष्य के अन्दर इंसान,
या उसके जज्बात पूर्णतः मर चुके हैं!

इस उधेड़बुन में मैने सोचा,
क्युँ न मैं खुद पूछ लूँ,
उसकी व्यथा, पीड़ा, कहानी?

हिम्मत जुटाई खुद को तैयार किया,
उसके समीप जाकर ठहर गया,
अनायास ही वो मेरी ओर मुड़ी,
उसकी पथराई आँखें चौंध सी गई,
कई भाव एकसाथ उसके
चेहरे पर तैरने लगे थे,
जुबान अवरुद्ध थी उसकी,
सजल हो उठी थी आँखे,
मानो सारी व्यथा उसने कह दी थी,
और मेरी ओर एकटक देखी जा रही थी।

उसका मुख देख मै हतप्रभ था,
मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद बह गए,
मेरी संवेदना समझ चुकी थी,
शायद उसके उपर दुखों का
भीषण सैलाब टूटा होगा कभी,
मर्माहत हुए होंगे उसके अरमान,
पर वो तो ज्जबातों को शब्द भी नही दे सकती!

जैसे तैसे अपने मन को काबू में कर,
मैंने उसे एक आश्रम मे छोड़ दिया था,
मैं समझ गया था शायद,
एक जोगन या विरहन ही है वो!
पर उसे थी जरूरत मानवीय संवेदना की!

Tuesday 5 January 2016

चिर प्रेयसी, अनन्त-प्रणयिनी


तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

काल सीमा से परे हमारा प्रणय,
चिर प्रेयसी तुम जन्म-जन्न्मातर से,
मेरी कल्पनाओं में बहती निर्बाध प्रवाह सी,
इस जीवन-वृत्त के पुनर्जन्म की स्मृति सी,
विस्तृत अन्तर्दृष्टि पर मोह आवरण जैसी।

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तुम अप्राप्य निधि जीवन वृत्त की,
तुम अतृप्त तृष्णा जन्म-जन्मान्तर की,
लुप्त हो जाती है जो आँखों में आकर,
क्या अपूर्ण तृष्णा की तृप्ति कभी हो पाएगी?
क्या तृष्णा-तृप्ति में समाहित हो पाएँगी?

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

Sunday 3 January 2016

शायद तू रहती होगी वहाँ

चाँद की ओट के पीछे,
सितारों की हद से भी दूर,
गम की सरहदों के पार,
ख्वाबों में कहीं इक दुनियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

पर्वतों के सायों के पीछे,
मन की कल्पनाओं से भी दूर,
ख्यालों की सरहदों के पार,
हसीन सी कहीं है वादियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

हसरतों की सदाओं के पीछे,
रंजो-गम की पहुँच से भी दूर,
अवसाद-विसाद की सरहदों के पार,
मुखरित होती सुंदर सी कलियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

Saturday 2 January 2016

तन्हाईयों के सिलसिले

तन्हाईयों के सिलसिले घेरे हैं दूर तक हमे,
तृष्णगी की रवानगी मे भी आ रहें हैं अब मजे।

खलिश थी जिन हसीन फूलों भरी वादियों की हमे,
ख्यालों की तन्हाईयों में अब, फैली है दूर तक सामने।

हर मंजर है तन्हा पर इनमे भी है इक रवानगी,
जज्बातों में उथल-पुृथल पर लिए इक वानगी।

हर शख्स यूँ तो तन्हा है जीवन के इस मेले में,
चल दूर कही चल ऐ दिल मिलते है कही अकेले में।

खुमारियों में भी साथ देती हैं दिल की धड़कनें,
इन धड़कनों में तू भी कहीं दिखता नजर के सामने।

Tuesday 29 December 2015

कह तो तुम सब अनकही

कह दो तुम सब अनकही।

जो तुमने अब तक ना कहा,
जो मैने अब तक ना सुना,
नयनों के सधे वाणो से 
अब तक तुम कहती रही,
जो बातें अब तक मन मे रही,
अपने शब्द प्रखर इन्हे दे दो।

कह दो तुम सब अनकही।

अनकही बातें करती है कलरव,
शिखर निर्झर झरे जल की तरह,
अनकहे जज्बात कौंधती रह रह,
बादलों में छुपे बिजली की तरह,
उमरती घुमरती मन में रही
इन जज्बातों को शब्द मुखर दे दो।

कह दो तुम सब अनकही।