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Monday 19 September 2016

खामोशियाँ

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

यह खामोशी है कैसी......

विषाद भरे आक्रोशित चिट्ठी की तरह गुमशुम,
राख के ढेर तले दबे गर्म आग की तरह प्रज्वलित,
तपती धूप में झुलसती पत्थर की तरह चुपचाप....

खामोशियाँ हों तो ऐसी.....

जज्बात भरे पैगाम लिए चिट्ठी की तरह मुखर,
दीवाली के फुलझड़ी मे छुपी आग सी खुशनुमा,
धूप में तपती गर्म पत्तियों की तरह लहलहाती.....

खामोशी है यह कैसी....

पुकार ले तू मुझको, कुछ बोल दे ऐ जिन्दगी,
तु कर दे इशारे, बता कि ये खामोशियाँ हैं कैसी?
रहस्य खामोशियों के, कुछ खोल दे ऐ जिन्दगी....

Sunday 18 September 2016

कटते नहीं कुछ पल

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

चूर हुआ जाता है जब बदन थक कर,
मुरझा जाती हैं ये कलियाँ भी जब सूख कर,
पड़ जाती हैं सिलवटें जब सांझ पर,
छेड़ जाता है वो पल फिर चुपके से आकर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

मद्धिम सी सूरज हँसती थी फलक पर,
आसमाँ से गिरके बूंदे, छलक जाती धी बदन पर,
नाचता था ये मन मयूर तब झूमकर,
बदली सी हैं फिजाएं, पर ठहरा है वो पल वहीं पर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

उस पल में थी जिन्दगानी की सफर,
उमंग थे, तरंग थे, थे वहीं पे सपनों के शहर,
लम्हे हसीन से गुजरते थे गीत गाकर,
पल वो भुलाते नहीं फिर गूंजते हैं जब वो स्वर,

ढल जाती है शाम, कटे कटता नहीं कुछ पल उम्र भर....

Monday 5 September 2016

ऐ परी

खूबसूरत सी ऐ परी, तू जुदा कभी मुझ से न होना.....

फासलों से तुम यूॅ न गुजरना,
ये फासले रास न आएंगे तुझको,
कुछ कदम साथ इस जिन्दगी के भी चलना,
राहत के कुछ पल साथ मेरे जी लेना।

खूबसूरत सी ऐ परी, तू गुमशुदा खुद से न होना.....

इन फासलों में है जीवन के अंधेरे,
राहों के शूल चुभ जाएंगे पावों में तेरे,
कुछ रौशनी में इस जिन्दगी के भी चलना,
उजाले यादों के इन आँखों में भर लेना।

खूबसूरत सी ऐ परी, तू नाराज खुद से न होना...
साया बने तू मेरी ऐ परी, जुदा कभी मुझसे न होना.....

Thursday 25 August 2016

क्षण भर को रुक

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

क्षण भर को ऐ जिन्दगी पहलू में आ मेरे,
सँवार दूँ मैं उन गेसुओं को बिखरे से जो हैं पड़े,
फूलों की महक उन गेसुओं मे डाल दूँ,
उलझी सी तू हैं क्यूँ? इन्हें लटों का नाम दूँ,
उमरते बादलों सी कसक इनमें डाल दूँ.....

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

क्षण भर को रुक जा ऐ जिन्दगी,
तेरी पाँवों में गीत भरे पायल मैं बाँध दूँ,
घुघरुओं की खनकती गूँज, तेरे साँसों में डाल दूँ,
चुप सी तू है क्युँ? लोच को मैं तेरी आवाज दूँ,
आरोह के ये सुर, तेरे नग्मों मे डाल दूँ.....

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

रुक जा ऐ जिन्दगी क्षण भर ही सही,
आईना तू देख ले, शक्ल तेरी तुझ सी है या नहीं,
मोहिनी शक्ल तेरी, आ इसे शृंगार दूँ,
बिखरी सी तू है क्यूँ? आ दुल्हन सा तुझे सँवार दूँ,
धड़कन बने तू मेरी, आ तुझको इतना प्यार दूँ...

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

मुकम्मल मुकाम

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

गुजरे हैं कई मुकाम इस जिन्दगी की पास से,
देखता हूँ मुड़कर मुकाम थी वो कौन सी,
साथ जब तलक रही अजनवी सी वो लगती रही,
अब दूर है वो कितनी मुकाम थी जो खास सी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

रफ्ता-रफ्ता उम्र ये, फिसलती गई इन हाथों से,
वक्त बड़ा ये बेरहम, जो छल गई मुकाम पे,
गैरों की इस भीड़ में, अंजाने हुए हम अपने आप से,
धूँध आँखों में लिए मुकाम तलाशती ये जिन्दगी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

हाथ आए ना वापस, गुजरे हैं जो मुकाम, पास से,
अब समेटता हूँ मैं, गुजरते लम्हों को हाथ से,
गाता हूँ फिर वो नग्मा, जब गुजरता हूँ मुकाम से,
तसल्ली क्या दिल को देगी, इस मुकाम पर जिन्दगी?

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

Tuesday 23 August 2016

यकीन की हदों के उस पार

यकीन की हदों के उस पार.....

दोरुखें जीवन के रास्ते, यकीन जाए तो किधर,
कुछ पल चला था वो, साथ मेरे मगर,
अब बदलते से रास्तों में छूटा है यकीन पीछे,
भरम था वो मेरे मन का, चलता वो साथ कैसे,
हाँ भटकती यकीन कितनी? हदों के उस पार......

दूसरा ही रुख जिन्दगी का यकीन के उस पार,
टूटते हैं जहाँ, सपनों के विश्वास की दीवार,
रंगतें चेहरों के बिखर कर मिटते हैं जहाँ,
शर्मशार होता है यकीन, खुद अपनी अक्श से ही,
हाँ बिलखती यकीन कितनी? हदों के उस पार......

हदें यकीन की हैं कितनी छोटी,
बढ़ते कदम जिन्दगी के, आ पहुँचे हैं यकीन के पार,
भीगी सी अब हैं आँखें, न ही यकीं पे एतबार,
बेमानी से पलते रिश्ते, झूठा सा है सबका प्यार,
हाँ छोटी सी है यकीन कितनी? हदों के उस पार......

Friday 5 August 2016

बढ़ती रहे जिन्दगी

चल, बढ़ बहती धार सा, ताकि बढ़ती रहे ये जिन्दगी.....

जिन्दगी की कहानी, ये धार नदी की बलखाती,
करती हवाओं से बातें, शीतल उन्हें बनाती,
जज्बा लिए जीवन का, संघर्ष बाधाओं से वो करती।

नाव जर्जर सी लड़खड़ाती, इक लकड़ी से बस बनी,
हर पल लहरों से टकराती, राह वो चलती रही,
जर्जर शरीर है मगर, जज्बा जीवन का अब भी वही!

लौ आश की उस तैरती दीप मे भी छुुपी,
भीगी सी वो बाती, जल जल जिए वो जिन्दगी,
उस जलन की ताप में ही है छुपी ये जिन्दगी।

हर पल मचलती बेताब लहरों के दिल में भी,
पल आश का छुपा है कहीं,
एक न एक पल तो विश्राम पाएगा वो कहीं।

पर, ठहरा वो लहर जो एक पल भी कहीं,
दम ठंढ़ी हवाओं के घुट जाएंगे वहीं,
रुक जाएगा वो प्रहर रुक जाएगी ये जिन्दगी।

चल, बढ़ बहती धार सा, ताकि बढ़ती रहे ये जिन्दगी.....

Sunday 31 July 2016

बर्फ सी जिन्दगी

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

जिन्दगी ये बर्फ के फाहा सी,
तन चाँदी सम, प्रखर तेज आभा इसकी,
फूलों सा स्पर्श, कोमल काया इसकी,
नग्न धूप में खिलती, सुनहरी आभा इसकी,
पिघल रही पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

पल पल पिघलती यह जिन्दगी,
सख्त पत्थरों के तन को पल पल सहलाती,
उष्मा सोखती तप्त-गर्म पत्थरों की,
ठंढ़ी काया अपनी पत्थर पर पिघलाती,
सजल हुई पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

सागर बना तब वो, जब ये बर्फ गली,
कंटक भरी राहों चला वो, तब ये नदी बनी,
उमंगें, आशाएँ, लहरें इसके तट खिली,
कलियाँ जीवन की खिली, ऊँचाई से जब यह फिसली,
आँचल खुली पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

तू कायम रह सदा कहती जिन्दगी,
सर ऊँचा, मन शान्त, हृदय में तू रख बंदगी,
तेरी राहें तुझे नई ऊँचाई दे जीवन की,
मैं तो जीवन हूँ, तेरे ही तन रही सदा फिसलती,
निर्जल हुई पत्थरों पर, विधि की विधान यह कैसी?

बर्फ सा बदन, पिघल रहा हर पल तह पर पत्थरों की....

Wednesday 8 June 2016

सूखते रिश्ते

बदलते मौसम की बयार में सूख रहे हैं ये रिश्ते भी...,

कुम्हलाए हैं अब रिश्तों के नाजुक फूल,
जज्बातों की गर्म हवाओं में जलकर,
बदलते मौसम की अनचाही आँधी मे झूलकर,
एहसासों के जमीं पर बिखरे हैं अब धूल ही धूल।

फफूँद उग आए हैं रिश्तों की क्यारी में,
सुखे है यहाँ सभी भावनाओं के फूल,
बिखर चुके पंख कोमल सी कल्पनाओं के,
स्वतः पूर्णविराम लगे हैं जीवन की आशाओं पर।

कशिश बस एक बाकी है उन रिश्तों की,
कभी खुश्बु सी आती है उन फूलों की,
खिलकर बिखरे थे जो मन की इस क्यारी में,
अब कड़वाहट बाँकी है उन रिश्तों की फुलवारी में।

दरारें हैं अब कैसी रिश्तों की इस गाँठ में,
क्युँ अहम इंसानों के भारी हैं रिश्तों पर,
तृष्णा, लालसा, अहम, अभिलाषा हावी संबंधों पर,
कुठाराघात करते रहे वो दिल की लचीली दीवारों पर।

बदलते एहसासों के साथ में टूट रहे हैं ये रिश्ते भी...,

Thursday 2 June 2016

चाहत की जिन्दगी

मुस्कुराहटों में गीत सी बजती है जिन्दगी,
उन नर्म होठों पे खिल के जब बिखरती है वो हँसी,
खिलखिलाहट में है उनकी नग्मों की रवानगी,
उन सुरमई आँखों में खुद ही कहीं तैरती है जिन्दगी।

दूरियों के एहसास अब दिलाती है जिन्दगी,
जेहन में अब तो बार-बार फिर उभरती है वो हँसी,
सजदा किए थे हमने जिन किनारों के कहीं,
कगार-ए-एहसास फिर वही अब मांगती है जिन्दगी।

बेकरारियों के दिए फिर जलाती है जिन्दगी,
कानों में इक आवाज सी बन के गूँजती है वो हँसी,
साज धड़कनों के मचल बज उठे फिर कहीं,
चाहतों का इक रंगीन सफर फिर चाहती है जिन्दगी।

Wednesday 1 June 2016

राख

दिल की हदों से गुजरी थी कभी जिन्दगी,
किस्से मोहब्बत के तमाम बाकी हैं,

चाहत के फूलों से सजा था कभी गुलशन,
जिन्दगी के अब कुछ निशान बाकी हैं,

उजड़ी है बस्तियाँ खत्म हो चुकी हैं कहानी,
चाहत के बस कुछ अल्फाज बाकी है,

मजार-ए-मीनार बनी इक अधूरे ईश्क की,
चाहत की मुकम्मल सी याद बाकी है,

अब अक्श है वो सामने जैसे लपटें हो आग की,
जलते हुए ईश्क की बस राख बाकी है।

Wednesday 11 May 2016

मुझसे मिली जिन्दगी

उस झील सी आँखों में अब तैरती ये जिन्दगी।

जिन्दगी अभ्र पर ही थी मेरी कहीं,
आज मुझसे आकर मिली झूमती वो वहीं,
नूर आँखों मे लिए वही दिलकशीं,
कह रही मुझसे तू आ के मिल ले कहीं।

हँस पड़ी जिन्दगी पल भर को मेरी,
बन्द लब्जों से ही करने लगी वो बातें कईं,
रंग होठों पे लिए फिर वही शबनमी,
कह रही जिन्दगी तू रोज आ के मिल कहीं।

मैं दिखा उन लकीरों में ही बंद कही,
उनकी हाथों में जब लकीरें असंख्य दिखीं,
स्नेह पलकों पे लिए हाथ वो पसारती,
कहने लगी जिन्दगी दूर मुझसे जाना नहीं।

उस अभ्र पर बादलों में अब तैरती ये जिन्दगी।

Tuesday 10 May 2016

रफ्ता रफ्ता वजूद

रफ्ता रफ्ता खो चुके हैं इस जहाँ की भीड़ में हम!

गुजर चुके है यहाँ कई महफिलों से हम,
खुद का पता ही कहीं अब भूल चुके हैं हम,
यूँ सफर तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब खुद का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

बड़ी ही हसीन शाम महफिलों के मगर,
अब दिल है मेरा खोया हुआ न जाने किधर,
यूँ वक्त तमाम कट गई हैं रफ्ता रफ्ता,
अब इस दिल का वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

ये महफिलें है फकत यहाँ बेकाम की,
दिल की राहों से यहाँ दूर अब हो चले हैं हम,
यूँ उम्र तमाम कट गई है रफ्ता रफ्ता,
अब जिन्दगी का ही वजूद ढूंढ़ने में लगे हैं हम।

रफ्ता रफ्ता गुजर रहे हैं इन अंजान राहों से हम!

Friday 29 April 2016

कह भी देेते

हसीन सी होती ये जिन्दगी, कह भी देते जो बात वो।

कहीं कुछ तो है जो कह न पाए है वो,
कोई बात रुक गई है लबों पे आ के जो,
बन भी जाती इक नई दास्ताँ, कह भी देते जो बात वो।

चुप चुप से वो बैठे लब क्युँ सिले हैं वो,
जाने कब से इन सिलसिलों में पड़े हैं वो,
हँस भी देती ये खामोशियाँ, कह भी देते जो बात वो।

ये जरूरी नही कि कह दें मन की बात वो,
कह देती हैं सब ये नजरें, चाहे हों जज्बात जो,
रोके रुके हैं कब जज्बात ये, कह भी देते जो बात वो।

कुछ और होती ये जिन्दगी, कह भी देते जो बात वो।

Wednesday 27 April 2016

व्यस्त जिन्दगानी

व्यस्त लम्हे, हकीकत हैं ये जीवन के,
पल भर को फुर्सत नही साँसें लेने की चैन के,
रफ्तार से घूम़ती हैं, ये पहिए जिन्दगी के,
जरूरतों के आगे पिसती है, जरूरत जिन्दगानी के।

कब रुके हम, कब साँसों को झकझोरा,
जाने किन राहों पर हमने खुद को ही रख छोड़ा,
खुद से ही पूछते है हम कभी खुद का पता,
व्यस्तताओं के आगे विवश, हमारी आवश्यकता।

शून्य संग्याहीन हो चुके मन के भाव सारे,
निर्णय के दोराहों पर जाने कितने ही पल गुजारे,
हारी है चाह मन की असंख्य बार जीवन में,
भौतिकता के आगे हरबार टूटे हैं घर कल्पनाओं के।

कोमलता हंदय की दबी व्यस्तताओं में,
खूबसूरती लम्हो की रहती अनदेखी वर्जनाओं में,
जज्बातों के घरौंदे जलते जीवन की भट्ठी में,
एहसासों के राख पर ही महल बनते जिन्दगानी के।

तन्द्रा भंग हुई अब व्यस्त लम्हों की मजार पर,
कशिश आह भरी दिल में, रंजिश उन गुजरे लम्हों पर
आँसू छलके हैं नैनों में, हृदय हो रहा बेजार पर,
गुजरे वक्त के आगे विवश, बैठा जज्बातो के ढ़ेर पर।

Friday 15 April 2016

आपके कदम

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

कदम आपके पडते हों जहाँ,
शमाँ जिन्दगी की जल उठती हैं वहाँ,
गुजरती हैं तुझसे ही होकर चाँदनी,
आपके साथ ही चला तारों का ये कारवाँ।

चाँद का रथ आपकी दामन के तले,
नूर उस चाँद का आपके साथ जले,
तेरी कदमों के संग निशाँ जिन्दगानी ये चले,
शमाँ जलती ही रहे जब तलक आप कहें।

तम के साए बिखरे हैं बिन आपके,
बुझ रहे हैं ये दिए बिन आस के,
बे-आसरा हो रहा चाँद बिन आपके,
जर्रे-जर्रे की रुकी है ये साँसे बिन आपके।

आप रख दें जो कदम, जिन्दगी हँस दे फिर वहाँ !

Sunday 10 April 2016

उम्र के साथी

आ गई अब उम्र वो, तलाशता हूँ जिन्दगी को,
उम्र की इस दहलीज पे, साथ मेरे कोई तो हो।

कभी मगन हो लिए हम, खुद अपने ही आप में,
फिर कभी तलाशता हूँ, खुद में अपने आप को।

कहते हैं जिन्हे अपना हम, दिखते हैं वो दूर से,
पास अपनी इक जिन्दगी, क्युँ रहें हम मायूश से।

जिन्दगी की प्यारी सी धुन, हर घड़ी बजती रहे,
साए सी तुम संग-संग रहो, जिन्दगी चलती रहे।

तन्हा हैं जो इस सफर में, हम उनकी जिन्दगी बनें,
कुछ लम्हें जिन्दगीे, संग उनके भी हम गुजार लें।

खिल-खिलाएगी ये जिन्दगी, जहाँ तेरे कदम पड़े,
तलाशेंगी ये तुमको खुशी, उठकर आप कहाँ चले।

उम्र गुजर जाएगी ये, जिन्दगी के आस-पास ही,
साथी तेरे कहलाएंगे ये, इस जिन्दगी के बाद भी।

Sunday 3 April 2016

हाँ, जिन्दगी लम्हा-लम्हा

हाँ, बस यूँ गुजरती गई ये जिन्दगी,
कभी लम्हा-लम्हा हर कतरा तृष्णगी,
कभी साँसों के हर तार में है रवानगी,
बस बूँद-बूँद यूँ पीता रहा मैं ये जिन्दगी।

हाँ, कभी ये डूबी छलकती जाम में,
विहँसते चेहरो के संग हसीन शाम में,
रेशमी जुल्फों के तले नर्म घने छाँव में,
अपने प्रियजन के संग प्रीत की गाँव में।

हाँ, रुलाती रही उस-पल कभी वो,
याद आए बिछड़े थे हमसे कभी जो,
सिखाया था जिसने जीना जिन्दगी को,
कैसे भुला दें हम दिल से किसी को?

हाँ, पिघलते रहे बर्फ की सिल्लियों से,
उड़ते रहे धूल जैसे हवाओं के झौंकों से,
तपते रहे खुली धूप में गर्म शिलाओं से,
गुजरती रही है ये जिन्दगी हर दौर से।

हाँ, बदले हैं कई रंग हरपल जिन्दगी नें,
कभी सूखी ये अमलतास सी पतझड़ों में,
खिल उठे बार-बार गुलमोहर की फूलो में,
उभरी है जिन्दगी समय के कालचक्र से।

400 वीं कविता....सधन्यवाद "जीवन कलश" की ओर से...

Tuesday 29 March 2016

एक दिन खो जाऊँगा मैं

प्रीत का सागर हूँ छलक जाऊँगा नीर की तरह,
अंजान गीतों का साज हूँ बजता रहूँगा घुँघरुओं की तरह!

एक दिन,
खो जाऊँगा मैं,
धूंध बनकर,
इन बादलों के संग में!

मेरे शब्द,
जिन्दा रहेंगी फिर भी,
खुशबुओं सी रच,
साँसों के हर तार में!

बातें मेरी,
गुंजेगी शहनाईयों सी,
अंकित होकर,
दिलों की जज्बात में!

सदाएँ मेरी,
हवा का झौंका बन,
बिखर जाएंगी,
विस्मृति की दीवार में!

अक्श मेरी,
दिख जाएगी सामने,
दौड़ कर यादें मेरी,
मिल जाएंगी तुमसे गले!

परछाईं मेरी,
नजरों में समाएगी,
भूलना चाहोगे तुम,
मिल जाऊंगा मैं सुनसान मे!

निशानियाँ मेरी,
दिलों में रह जाएंगी
खो जाऊँगा कहीं,
मैं वक्त की मझधार में!

मुसाफिर हूँ, गुजर जाऊँगा मैं वक्त की तरह,
जाते-जाते दिलों में ठहर जाऊँगा मैं दरख्त की तरह!

Thursday 17 March 2016

कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी

भाग्य कैसा! कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी वो!

मरुस्थल के सूखी गर्म रेत सी जिन्दगी वो,
मन का आँगन दूर तक विराना,
बालूका तट सी झिलमिल आँखो के कोर,
हृदय में उठती रेत के समुन्दरों के अगनित ज्वर।

प्रारब्ध कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

रेगिस्तान की तपती धूलकण सी जिन्दगी वो,
शरीर रेतकण के ढेर सी ढही हुई,
सैकत ही सैकत दूर तक कोई गीलापन नहीं,
होंठ की कोर में सुलगते दुःखों के असंख्य स्वर।

विधि कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

पिक कहुकिनी वो, पर भूल चुकी थी गाना वो,
सूख चुके थे मन के कानन वन उसके,
अंतर की ध्रुवगंगा सुखी मधुऋतु के इंतजार में,
चेतनतत्व की आसमा से गुजर रहा निर्जल पयोधर।

नियति कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!