कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा, हो चला, ये सिलसिला!
बेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
हर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
परवाह, किसकी कौन करे?
पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
अपनी ही, पथ चला!
अनसुना कर चला, ये सफर, ये काफिला!
अनसुने से, धड़कनों के हैं, गीत कितने,
बाट जोहे, हैं बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
बेसुरे से, हो चले, संगीत सारे,
गूंज कर ये वादियाँ, किनको पुकारे!
संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही, धुन चला!
कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह🌼
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०९-०७-२०२१) को
'माटी'(चर्चा अंक-४१२१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteवाह!पुरुषोत्तम जी ,क्या बात है ,बहुत खूब!
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteकोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
ReplyDeleteया छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!
आज सब की यही खवाहिश है ,हमेशा की तरह लाजबाब....सादर नमन आपको
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteबेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
ReplyDeleteहर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
परवाह, किसकी कौन करे?
पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
अपनी ही, पथ चला!
विचलित मन की शानदार भावाभिव्यक्ति पुरुषोत्तम जी | आपकी लेखनी का प्रवाह निर्बाध रहे यही कामना है | सादर
अभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।
Delete