क्षण क्षण उम्र बढ़ रही है अवसान को,
यह जन्मदिन जन्म दे रही अवसाद को।
अब तो प्रहर सांझ की ढलने को आई,
मुझसे मीलों पीछे छूटी है मेरी तरुणाई।
मनाऊँ कैसे जन्मदिन इस उम्र में अब,
तार वीणा के सुर में बजते नही है अब।
मृदंग के स्वर कानों में गूंजते नहीं अब,
तानपूरे की उम्र ही ढल गई मानो अब।
केक मिठाई तो बन चुके है मेरे दुश्मन,
जन्मदिन मनाने का अब रहा नहीं मन।
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