स्वर्णकण सी चमक रही, बालूकण मरुस्थल के,
कड़कती तेज प्रखर धूप ज्वाला में जल जल के।
हे मानव, जीवनमरु में बालू सम निखरो जल के।
अकित हुई मरुस्थल स्वर्ण सी बालू की आभा में,
शोभित हो कर बिखर रहे स्वर्णकण चहु दिशा में,
हे मानव, स्वर्णकण सी बिखरो जीवन की राहों में।
उठी वेग से आंधी, धूलकण बिखरी स्वर्णकण बन,
बरस रही फेनिल स्वर्ण सी, उड़उड़ कर बालूकण।
हे मानव, तुम उड़ो मरूजीवन के स्वर्णकणों सम।
हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।
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