सन्निकट देख एकाकीपन,
सुनके रात्रितम के कठोर स्वर,
महसूस कुृछ हो रहा मन को।
इक मूरत थी मेरे हाथों मे,
सुन्दर, कोमल और प्रखर,
निःश्वास भरती थी वो रंग कई,
मेरे सूने एकाकीपन में।
कहीं छूटा है हाथों से मेरे,
या खुद ही टूटा उधेरबुन में मेरे,
इक मूरत थी जो मेरे हाथों मे।
मैं अग्यानी समझ न पाया,
कोमलता उसकी परख न पाया,
स्वार्थ मेरा वो रूठा मुझसे।
निज भूल की ही परिणति शायद,
स्नेह अमृत का वो मधुर प्याला,
खुद ही टूटा मेरे हाथों से।
सुनके रात्रितम के कठोर स्वर,
महसूस कुृछ हो रहा मन को।
इक मूरत थी मेरे हाथों मे,
सुन्दर, कोमल और प्रखर,
निःश्वास भरती थी वो रंग कई,
मेरे सूने एकाकीपन में।
कहीं छूटा है हाथों से मेरे,
या खुद ही टूटा उधेरबुन में मेरे,
इक मूरत थी जो मेरे हाथों मे।
मैं अग्यानी समझ न पाया,
कोमलता उसकी परख न पाया,
स्वार्थ मेरा वो रूठा मुझसे।
निज भूल की ही परिणति शायद,
स्नेह अमृत का वो मधुर प्याला,
खुद ही टूटा मेरे हाथों से।
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