Sunday, 28 February 2016

पक रहा मानव

जीवन की भट्ठी में पक रहा मानव।

न जाने किस स्वर नगरी में मानव,
हैं बज रहा यूँ ज्यूँ तेज घुँघरू की रव,
कुछ राग अति तीव्र, कुछ राग अभिनव।

न जाने किन पदचिन्हों पर अग्रसर,
पल पल कितने ही मिश्रित अनुभव,
संग्रहित कर रहा इन राहों पर मानव।

कुछ अकथनीय और कुछ असंभव,
कुछ खट्टे मीठे और कुछ कटु अनुभव,
क्या जीवन इस बिन हो सकता संभव?

जीवन की भट्ठी में पक रहा मानव।

2 comments:

  1. वाह!लाजवाब सृजन पुरुषोत्तम जी ।
    खट्टे ,मीठे ,कडवे अनुभवों के बिना कहाँ संभव है जीवन । बहुत खूब !

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया शुभा जी। एक पुरानी सी पड़ी रचना को जीवन्त बनाने हेतु शुक्रिया।

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