Thursday, 17 March 2016

मनसिज सा मन

मन गुम सुम मृसा जग के कांतार में,
सघन बड़ी ये कांतार कानन जीवन की,
कहुकिनी मन की हुई अब चुप चुप सी,
तकती मुकुर पुलोजमा इस जीवन के प्रांगण में।

धुंधलाई लोचन इस दीप्ति मरीचि मे,
स्वातिभक्त सा मन तकता रहता नभ में,
चाहत उस पियूष का सोम रस जीवन में,
आरसी देखती रहती इन्द्रबधु मन के आंगण में।

मनसिज सा मन मन्मथ अनंता जग में,
परमधाम अपवर्ग ढूढ़ता रहता जीवन में,
विवश प्राण प्रारब्ध नियति विधि भँवर में,
इन्द्रव्रज चपला दामिनी का भय मन प्रांगण में।

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