Thursday, 10 March 2016

तू है हर जगह कहीं न कहीं

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

घट घट से मैंने पूछा तू जीता है कैसे?
निरूत्तर कण-कण घट के और जवाब एक ही,
"विधाता रखता है जैसे जी लेता हूँ वैसे ही!"

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

बहती हवाओं मे लिपटी स्पर्श तेरी ही,
कलकल बहती धारा लिए अनुराग तेरी ही,
शिलाएँ बर्फ की चाँदनी सी आभा में तेरी ही,

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

प्यार भरे आँखों के आँसू मे रहता तू ही,
खुश्बु सौंधी सी मिट्टी की आती तुझसे ही,
चटक कलियों ने सीखा है खिलना तुझसे ही,

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

फूलों में इतर सी खुश्बु कारण तेरे ही,
मधुमई सुबह की रंगीनियाँ कारण तेरे ही,
चम्पई ठलती शाम हुई सुरमई तेरे कारण ही,

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

बारिश के बूँदों की छमछम तुझसे ही,
मृदुल घटाएँ आच्छादित नभ पर तुझसे ही,
सागर की लहरों का तट से टकराना तुझसे ही,

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

ज्वार भाटा का सामंजस्य तुझसे ही,
लहरें विकराल सुनामी उठती तुझसे ही,
रंग सागर का नीला अतिरंजित तुझसे ही,

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

कंठ कोकिला के मधुर स्वर तेरी ही,
अट्टहास गर्जन मे बादल की स्वर तेरी ही,
मौन निर्जन वियावान अरण्य गुंजित तुझसे ही,

तू है हर जगह कहीं न कहीं.......!

घट घट से मैंने पूछा तू जीता है कैसे?
निरूत्तर कण-कण घट के और जवाब एक ही,
"विधाता रखता है जैसे जी लेता हूँ वैसे ही!"

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