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Wednesday 14 October 2020

गर हो तो रुको


गर हो तो, रुको....

कुछ देर, जगो तुम साथ मेरे,
देखो ना, कितने नीरस हैं, रातों के ये क्षण!
अंधियारों ने, फैलाए हैं पैने से फन,
बेसुध सी, सोई है, ये दुनियाँ!
सुधि, ले अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

नीरवता के, ये कैसे हैं पहरे!
चंचल पग सारे, उत्श्रृंखता के क्यूँ हैं ठहरे!
लुक-छुप, निशाचरों ने डाले हैं डेरे!
नीरसता हैं, क्यूँ इन गीतों में!
बहलाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

देखो, एकाकी सा वो तारा,
तन्हा सा वो बंजारा, फिरता है मारा-मारा!
मन ही मन, हँसता है,वो भी बेचारा!
तन्हा मानव, क्यूँ रातों से हारा!
समझाए, अब कौन यहाँ!

गर हो तो, रुको....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 20 September 2020

इंतजार

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

दुविधाओं से भरे, वो शूल से पल,
निरंतर आकाश तकते, दो नैन निश्छल,
संभाले हृदय में, इक लहर प्रतिपल,
वही, इंतजार के दो पल,
करते रहे छल! 
क्षीण से हो चले, सारे आसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

थमी सी राह थी, रुकी सी प्रवाह,
उद्वेलित करती रही, अजनबी सी चाह,
भँवर बन बहते चले, नैनों के प्रवाह,
होने लगी, मूक सी चाह,
दे कौन संबल!
बिखरा, तिनकों सा वो संसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

टूटा था मन, खुद से रूठा ये मन,
कैसी कल्पना, कैसा अदृश्य सा बंधन!
जागी प्यास कैसी, अशेष है सावन,
क्यूँ हुआ, भाव-प्रवण!
धीर, अपना धर!
स्वप्न, कब बन सका अभिसार...

मन के शुकून सारे, ले चला था इंतजार....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 31 August 2020

रुक जरा

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

चुप-चुप, ये गुनगुनाता है कौन?
हलकी सी इक सदा, दिए जाता है कौन?
बिखरा सा, ये गीत है!
कोई अनसुना सा, ये संगीत है!
है किसकी ये अठखेलियाँ,
कौन, न जाने यहाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

उनींदी सी हैं, किसकी पलक?
मूक पर्वत, यूँ निहारती है क्यूँ निष्पलक?
विहँस रहा, क्यूँ फलक?
छुपाए कोई, इक गहरा सा राज है!
कौन सी, वो गूढ़ बात है?
जान लूँ, मैं जरा!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

कोई लिख रहा, गीत प्यार के!
यूँ हवा ना झूमती, प्रणय संग मल्हार के?
सिहरते, न यूँ तनबदन!
लरजते न यूँ, भीगी पत्तियों के बदन!
यूँ ना डोलती, ये डालियाँ!
कैसी ये खामोशियाँ!

पल भर को, रुक जरा, ऐ मेरे मन यहाँ,
चुन लूँ, जरा ये खामोशियाँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 2 August 2020

एक धारा

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!

वो, भिगोते थे, कभी बारिशों में,
लरजते थे, कभी सुर्ख फूलों पे हँस कर,
यूँ, सिमट आते थे, दबे पाँव चलकर,
अब वो मिले, दो बूँद बनकर,
और, नैनों में उतरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे.......

यूँ अनवरत, बहती है, एक धारा,
यूँ, लगता है हर-पल, ज्यूँ तुम ने पुकारा,
डूबी सी साहिल, का है इक किनारा,
थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
और, हम हैं ठहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे......

यूँ भी, छलक ही जाते हैं, प्याले,
अक्सर, टूटते भी हैं, छलकते-छलकते,
वो, दो बूँद तो, हैं बस तेरी यादों के,
उलझती सी, जज्बातों के,
और, हैं ये पहरे!
यूँ मन की गली से, वो गुजरे!

दो बूँद बनकर, आँखों में उतरे,
मन की, सँकरी गली से, वो जब भी गुजरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 21 July 2020

आत्म-मंथन

खुद की परिभाषा, कैसे लिख पाऊँ!

सहज नहीं, खुद पर लिख पाना,
खुद से, खुद में छुप जाना,
कल्पित सी बातें हों, तो विस्तार कोई दे दूँ,
अपनी अवलम्बन का, ये सार,
खुद का, ये संसार,
भला, गैरों को, कैसे दे दूँ!

खुद अपनी व्याख्या, कैसे कर जाऊँ ?

मूरत हूँ माटी की, मन है पहना,
ये जाने, चुप-चुप सा रहना,
शायद हूँ, किसी रचयिता की मूर्त कल्पना!
इर्द-गिर्द, इच्छाओं का सागर,
छू जाए, आ-आकर,
कैसे, ये विचलन लिख दूँ!

चुप सा वो अनुभव, कैसे लिख पाऊँ !

उथल-पुथल, मन के ये हलचल,
राज कई, उभरते पल-पल,
परिदग्ध करते, वो ही बीते पल के विघटन!
वो गुंजन, उन गीतों के झंकार,
विस्मृत सा, वो संसार,
व्यक्त, स्वतः कैसे कर दूँ!

खुद की अभिलाषा, कैसे लिख जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 14 July 2020

स्वप्न हरा भरा

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

अर्ध-मुकम्मिल से, कुछ क्षण,
थोड़ा सा,
आशंकित, ये मन,
पल-पल,
बढ़ता,
इक, मौन उधर,
इक, कोई सहमा सा, कौन उधर?
कितनी ही शंकाएँ,
गढ़ता,
इक व्याकुल मन,
आशंकाओं से, डरा-डरा,
वो क्षण,
भावों से, भरा-भरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

शब्द-विरक्त, धुंधलाता क्षण,
मौन-मौन,
मुस्काता, वो मन,
भाव-विरल,
खोता,
इक, हृदय इधर,
कोई थामे बैठा, इक हृदय उधर!
गुम-सुम, चुप-चुप,
निःस्तब्ध,
निःशब्द और मुखर,
उत्कंठाओं से, भरा-भरा,
हर कण,
गुंजित है, जरा-जरा!

है स्वप्न मेरा, जागा-जागा, हरा-भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 19 June 2020

मन हो चला पराया

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

लचकती डाल पर,
जैसे, छुप कर, कूकती हो कोयल,
कदम की ताल पर,
दिशाओं में, गूंजती हो पायल,
है वो रागिनी या है वो सुरीली वादिनी!
वो कौन है?
जो लिए, संगीत आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

आँखें मूंद कोई,
कुछ कह गया हो, प्यार बनकर,
गिरी हो बूँद कोई,
घटा से, पहली फुहार बनकर,
है वो पवन, या वो है नशीला सावन!
वो कौन है?
जो लिए, झंकार आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

चहकती सी सुबह,
जैसे, जगाती है झक-झोरकर,
खोल मन की गिरह,
कई बातें सुनाती है तोलकर,
है वो रौशनी या वो है कोई चाँदनी!
वो कौन है?
जो लिए, पुकार आया!

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 12 June 2020

परिप्रेक्ष्य

वही रंग, वही कैनवास,
वही ब्रश,
वही कूचियाँ,
वही मन,
बदल सी जाती है, तो बस,
इक तस्वीर!

शायद, बदल से जाते हैं परिदृश्य!
या शायद, परिप्रेक्ष्य!
ये रंग, ये कैनवास, ये ब्रश, ये कूचियाँ, 
निर्जीव से हैं ये सारे,
पर, ये मन!
उकेरता है जो, अपने ही सपन,
फिर, बेवशी में, सच से, फेरता है नयन?
उड़ेलता है रंग,
और बेख्याल हो, उकेरता है वो,
इक तस्वीर!

शायद, पूर्णताओं में छुपी रिक्तता,
या शेष, कोई चाह!
यूँ जमीं पे इन्द्रधनुष, उतरते क्यूँ यहाँ?
रंगों में, ढ़लती क्यूँ धरा,
और, ये मन!
क्यूँ उसी को, सोचता है मगन,
बेजार हो, अश्क में, भिगोता वो नयन?
संजोता है सपन,
और रिक्तताओं में, ढूंढता है वो,
इक तस्वीर!

वही रंग, वही कैनवास,
वही ब्रश,
वही कूचियाँ,
वही मन,
बदल सी जाती है, तो बस,
इक तस्वीर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 18 April 2020

वे लिख गए क्या

क्या लिख गए वो, मुझको सुना?
ऐ हवा, जरा तू गुनगुना!

कोई तो बात है, जो महकी सी ये रात है!
या कहीं, खिल रहा परिजात है!
नींद, नैनों से, हो गए गुम,
कुछ तो बता, लिख रही क्या रात है!

मुस्कुराए ये फूल क्यूँ, डोलते क्यूँ पात है?
शायद, कोई, दे गया सौगात है!
चैन, अब तो, हो गए गुम,
कुछ तो बता, कह रही क्या पात हैं!

क्यूँ बह रही पवन, कैसी ये, झंझावात है?
किसी से, कर रही क्या बात है?
हो रही, कैसी ये विचलन?
बता दे, क्यूँ झूमती ये झंझावात है?

कुछ है अधूरा, अधलिखा सा जज्बात हैं!
उलझाए मुझे, ये कैसी बात है!
झकझोर जाती है ये बातें,
तु मुझको बता, ये कैसे जज्बात हैं?

क्या लिख गए वो, मुझको सुना?
ऐ हवा, जरा तू गुनगुना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 April 2020

प्यासा

इतना, छलका-छलका सा!
हैरान हूँ मैं, ये सागर भी है प्यासा!
यूँ ही, भटका-भटका सा!
इन हवाओं को भी,
इक मंद समीर, की है आशा!

ऐ सागर, ऐ समीर!
तू खुद है पूर्ण,
फिर तू, इतना क्यूँ है अधीर?

अथाह हो तुम, लेकिन तुझमें है चंचलता,
अस्थिर, कितना मन तेरा!
कितना चाहे, मन, तेरा क्यूँ इतना चाहे?
अपरिमित सी, तेरी इक्षाएँ,
दूर वही भटकाए!

लालशा ये तेरी, लेकर आई है अपूर्णता,
अतृप्त, कितना मन तेरा!
कैसी चाहत? क्यूँ तुझको, नहीं राहत?
पल-पल, तेरी ये लिप्शाएं,
तुझको छल जाए!

ऐ सागर, ऐ समीर!
ना हो अधीर!

तुझ तक, चल कर,
खुद आई, कितनी ही नदियाँ, 
खुद आए, पवन झकोरे,
थे, ये सारे,
इक्षाओं, लिप्साओं से परे,
तुझमें ही खोए!

इतना, हलका-हलका सा,
जीवन हूँ मैं, ले जा जीने की आशा!
क्यूँ है, प्यासा-प्यासा सा?
है, इस जीवन को भी,
इक मंद सलील, की ही आशा!

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 5 April 2020

छू लेगी याद मेरी

जो होंगे, कुछ पल, तेरे सूने,
जब बिछड़ जाओगे, खुद से तुम,
तो आ जाएंंगी, मेरी यादें, 
अकले मेें, तुझे छूने!

संवर जाओगे, तुम तब भी,
निहारोगे, कोई दर्पण,
बालों को, सँवारोगे,
शायद, भाल पर, इक बिन्दी लगा लोगे,
सम्हाल कर, जरा आँचल,
सूरत को, निहारोगे,
फिर, तकोगे राह, 
तुम मेरी....

जो होंगे, कुछ पल, तेरे सूने!

अन-गिनत प्रश्न, करेगा मन!
उलझाएगा, सवालों में,
खोकर, ख़्यालों में,
शायद, आत्म-मंथन, तब तुम करोगे,
खुद को ही, हारोगे,
फिर, चुनोगे तुम,
राह मेरी....

जो होंगे, कुछ पल, तेरे सूने,
जब बिछड़ जाओगे, खुद से तुम,
तो आ जाएंंगी, मेरी यादें, 
अकले मेें, तुझे छूने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 28 March 2020

कोरोना - ये भी, इक दौर है

ये भी, इक दौर है....
विस्तृत गगन, पर न कहीं ठौर है!
सिमट चुकी है, ये संसृति,
शून्य सी, हुई चेतना,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

बेखुदी में, दौर ये....
कोई मरे-मिटे, करे कौन गौर ये!
खुद से ही डरे, लोग हैं,
झांकते हैं, शून्य में,
और एक, वेदना,
कोरोना!

क्रूर सा, ये दौर है....
मानव पर, अत्याईयों का जोर है!
लीलती, ये जिन्दगानियाँ,
रौंदती, अपने निशां,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

ढ़लता नहीं, दौर ये....
सहमी क्षितिज, छुप रहा सौर ये!
संक्रमण का, काल यह,
संक्रमित है, ये धरा,
और एक, वेदना,
कोरोना!

ये भी, इक दौर है....
विचलित है मन, ना कहीं ठौर है!
बढ़ने लगे है, उच्छवास,
करोड़ों मन, उदास,
और एक, गर्जना,
कोरोना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 27 March 2020

छल

रहे थे, करीब जितने,
हुए, दूर उतने!
मेरे पल!

काटे-न-कटते थे, कभी वो एक पल,
लगती, विरह सी, थी,
दो पल, की दूरी,
अब, सताने लगी हैं, ये दूरियाँ!
तेरे, दरमियाँ,
तन्हा हैं, कितने ही पल!

डसने लगे हैं, मुझे वो, हर एक पल,
मेरे ही पहलू में, रहकर,
मुझमें सिमटकर,
लिए, जाए किधर, जाने कहाँ?
तेरे, दरमियाँ,
होते जवाँ, हर एक पल!

करते रहे छल, मुझसे, मेरे ही पल,
छल जाए, जैसे बेगाने,
पीर वो कैसे जाने,
धीर, मन के, लिए जाए कहाँ?
तेरे, दरमियाँ,
अधूरे है, कितने ये पल!

रहे थे, करीब जितने,
हुए, दूर उतने!
 मेरे पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 15 March 2020

मन चाहे

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

संदर्भ नए, फिर लिख डालूँ,
नजर, विकल्पों पर फिर से डालूँ,
कारण, सारे गिन डालूँ,
हारा भी, तो मैं,
क्यूँ हारा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

खोए से वो पल, दोहरा लूँ,
जीवन से, बिखरे लम्हे पा डालूँ,
मोती, बिखरे चुन डालूँ,
बिखरा तो, वो पल,
क्यूँ बिखरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

ख्वाब अधूरे, चाहत के सारे,
जीवन के, भटकावों से हम हारे,
खुद को ही, समझा लूँ,
ठहरा भी, तो मैं,
क्यूँ ठहरा?

मन चाहे, जी लूँ दोबारा!
जीत लूँ सब, जो जीवन से हारा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

अक्सर, ये मन

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

जाने, क्या-क्या रखा है मन के तहखाने?
सुख-दु:ख के, अणगिण से क्षण!
या कोई पीड़-प्रवण!
क्षणिक मिलन,
या हैं दफ्न!
दुरूह, विरह के क्षण!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

संताप कोई, या, अकल्प सी बात कोई?
शायद, अधूरा हो संकल्प कोई!
कहीं, टूटा हो दर्पण!
बिखरा हो मन,
या हैं दफ्न!
गहरा सा, राज कोई!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

किसने डाले, इस अभिव्यक्ति पर ताले?
जज़्बातों के, ये कैसे हैं प्याले?
गुप-चुप, पीता है मन!
सोती है धड़कन,
या हैं दफ्न!
चीखती, आवाज कोई!

चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 2 March 2020

कैसी फगुनाहट

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

खून-खून, है ये फागुन,
धुआँ-धुआँ, उम्मीदें,
बिखरे, अरमानों के चिथरे,
चोट लगे हैं गहरे,
हर शै, इक बू है साजिश की,
हर बस्ती, है मरघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

छलनी-छलनी, ये मन,
छलकी सी, आँखें,
छूट चले, आशा के दामन,
रूठ चले हैं रंग,
डूब चुके, हृदय के तल-घट,
छूट, चुके हैं पनघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

बस्ती थी, ये कल-तक,
है अब, ये मरघट,
घुल चुके भंग, इन रंगों में,
धुल चुके हैं अंग,
उड़ चले गुलाल, सपनों से,
अब कैसी, फगुनाहट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!
हूँ, दंगों से आहत!
ऐ फगुनाहट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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कैसी फगुनाहट (मेरी आवाज मे You Tube पर इस रचना को सुनें)
https://youtu.be/jV0W5oNbBAU

Wednesday 26 February 2020

तंग गलियारे

माना, हम सब सह जाएंगे,
दंगों के विष, घूँट-घूँट हम पी जाएंगे,
आगजनी, गोलीबारी,
तन-बदन और सीनों पर, झेल जाएंगे,
लेकिन, मन की तंग गलियारों से,
आग की, उठती लपटें,
धू-धू, उठता धुआँ,
इन साँसों में, कैसे भर पाएंगे?

जलता मन, सुलगता बदन,
आघातों के, हर क्षण होते विस्फोट,
डगमगाता विश्वास,
बहती गर्म हवाएँ, सुलगते से ये होंठ,
जहरीली तकरीरें, टूटती तस्वीरें,
चुभते, बिखरे से काँच,
सने, खून से दामन,
इस मन को, कैसे जोड़ पाएंगे?

मन के, ये तंग से गलियारे,
नफ़रतों, साज़िशों की ऊँची दीवारें,
वैचारिक अंन्तर्द्वन्द,
अन्तर्विरोध व अन्तः प्रतिशोध के घेरे,
अवरुद्ध हो चली, वैचारिकताएं,
घिनौनी मानसिकताएं,
चूर-चूर, होते सपने,
इन नैनों में, कैसे बस पाएंगे?

इन, तंग गलियारों में ....
माना, हम सब सह जाएंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 12 February 2020

बेज़ुबान पंछी

सेवते अण्डे,
घटाटोप बादल,
सोचते पंछी!

दुष्ट प्रवृत्ति,
निर्दयी बहेलिया,
सहमी जान!

झूलते डाल,
टूटते वो घोंसले,
गिरते अण्डे!

तेज पवन,
निस्तेज होता मन,
चुप बेजुबां!

कैसा ये ज़हां,
बिखरा वो आशियां,
खुश अहेरी!

करे आखेट,
निर्दयी वो आखेटक,
मारते पंछी!

झूलते डाल,
बिखरे से घोंसले,
मृत वे चूजे!

रोते आकाश,
पछताते पवन,
कर अनर्थ!

चुप सी हवा,
ठहरा वो बादल,
निढ़ाल पंछी!

वही मानव,
बन बैठा दानव,
करे उत्सव!

थमा मौसम,
निढाल सा चातक,
ताकते नभ!

मूक सी बोली,
बेज़ुबान वो बात,
भीतरी घात!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु: जापान के काव्य-जगत में, हाइकु को स्थान दिलाने वाले जापानी कवि बाशो ‘हाइकु’ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि  “एक अच्छा हाइकु क्षण की अभिव्यक्ति होते हुए भी किसी शास्वत जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति होता है|”

हाइकु मूल रूप से एक अतुकांत कविता है और हाइकु के मान्य विषय प्रकृति–चित्रण और दार्शनिक-सोच हैं। परन्तु हिन्दी हाइकु में अनेकानेक विविध प्रयोग हुए हैं।

हाइकु में तीन चरण या पद होते हैं। पहले चरण में 5 वर्ण, दूसरे में 7 वर्ण एवं तीसरे में 5 वर्ण होते हैं। इस तरह तीनों चरणों में कुल (5+7+5) 17 वर्ण (स्वर या स्वर युक्त व्यंजन) होते हैं। स्वर रहित व्यंजन (हलन्त्) की गिनती नहीं की जाती, जैसे विस्तार में स् की गणना नही की जाएगी । इस शब्द में वि, ता और र की ही गणना की जाएगी । इस गणना में लघु/दीर्घ मात्राएँ समान रूप से गिनी जाती हैं, अर्थात् विस्तार में 1+1+1=3 वर्ण ही माने जाएँगे।

इन पंक्तियों की विशेषता होती है कि ये अपने आप में स्वतंत्र होती हैं परन्तु आखिरी अक्षर तक पहुँचते ही पाठक के सामने एक पूरी तस्वीर प्रस्तुत होती है, मन में गहन भाव का बोध होता है|

Tuesday 11 February 2020

रुग्ध मन

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!

खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!

 सुरीली धुन, 
फिर वो रूनझुन, 
डूबोए मन!

बहते नैन,
पल भर ना चैन, 
करे बेचैन!

गाती कोयल,
भाए न इक पल, 
करे बेकल!

 वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!

खुद से बातें, 
खुद को समझाते,
रहे ये मन!

अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!

ना कोई कहीं, 
कहें किस से हम,
रोए ये मन!

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।