Thursday, 28 January 2016

पुकारता क्षितिज

खुलता हुआ वो क्षितिज,
मन के सन्निकट ही कहीं,
पुकारता है तुझको बाहें पसारे।

तिमिर सा गहराता क्षितिज,
हँसता हैं उन तारों के समीप कहीं,
पुकारता अपने चंचल अधरों से ।

मधुर हुए क्षितिज के स्वर,
मध टपकाते उसके दोनो अधर,
हास-विलास करते काले बालों से।

आ मिल जा क्षितिज पर,
कर ले तू भी अपने स्वर प्रखर,
तम क्लेश मिट जाए सब जीवन के।

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