Thursday, 7 January 2016

मुक्ति सृष्टि पार


तू सोचता क्या मुसाफिर?

सृष्टि के उस पार
तुझे है जाना,
मुक्ति तेरी वहाँ खड़ी है,
अनन्त राह तेरी उस ओर।

मुड़ कर तू वापस,
क्या देखता बार-बार?
अनन्त हसरतें तेरी,
खीचे तुझको पीछे हर बार,
हंदयअन्तस के आँखो की
असीम गहराई से तू देख,
कौन साथ खड़ा है तेरे?
जिसकी राह तू रहा निहार!

जीवन का अन्त ही,
ब्रम्ह का अचल सत्य,
चक्षु पटल खोल तू,
इस सच से मुँह न मोड़,
मोह माया धन जंजाल,
सब कुछ छोड़कर पीछे,
चला जा उस राह तू,
मुक्ति तेरी वहाँ छुपी है,
अनन्त ले जाए जिस ओर!

No comments:

Post a Comment