सोचता हूँ कभी!
मन जैसी कोई चीज है भी क्या?
खुशी के एहसास, दुःख का आभाष,
शरीर के अन्दर होता हैं कहाँ?
क्या तन्तुओ और कोशिकाओं मे?
इन्हें कौन दिग्दर्शित करता है?
शायद मन है क्या वह?
सोचता हूँ कभी!
मन का कोई आकार भी है क्या?
ठोस, द्रव्य, नर्म, मुलायम या कुछ और?
एहसास सुख के करता कहाँ?
दुःख का आभाष होता इसे कैसे?
मन टूटने पर पीड़ा तो होती है,
पर टूटने की आवाज क्युँ नही होती?
मन जैसी कोई चीज है भी क्या?
सोचता हूँ कभी!
पत्थर टूटे तो होता घना शोर,
शीशा टूटने से होती चनकार सी,
कागज फटने होती सरसराहट सी,
पत्तों के टूटने से होता मंद शोर,
फूलों के मसलने की भी होती सिसकी,
पर इस मन के टूटने से?
मन के टूटने से उठती है कराह!!!!!
मस्तिष्क के तार झंकृत हो उठते हैं,
क्षण भर को शरीर शिथिल हो जाता है,
पत्थरों के दिल भी भेद जाते हैं,
आसमान से बूँद छलक पड़ते हैं,
शायद मन सबसे कठोर होता है!
सोचता हूँ कभी?
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