प्राण बसते उस सूक्ष्म पराशक्ति में,
रमता है जो घट-घट मे,
वो आँसूओं में वो क्रंदन में,
वेदनाओं मे निराशाओं मे,
सन्नाटों के घन आहटों मे,
रमता वो हिम के वियावानों में,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।
तेरे बगैर आँसुओं के मौन,
वेदनाओं के करुण क्रन्दन,
निराशाओं के घनघोर घन,
आहटों के प्रतिपल तेज चरण,
साए चुपचाप, प्रतिविम्ब मौन,
सन्नाटों के क्षण व्याकुल मन,
वेदना तुम झेलो तभी तुम्हे मानूँ।
जग की तुम संताप हर लो,
वेदना जन-जन की ले लो,
आशाओं की नव रश्मि दो,
प्रतिविम्ब को विम्बित कर दो,
मौन को स्वर साधना दे दो,
ब्रहमांड में तुम हुंकार भर दो,
पीड़ा जग की हरो तभी तुम्हे मानूँ।
तुम अगम तुम अगोचर,
विराट तुम पर अन्तर्धान,
मैं तुच्छ तुझे कैसे पहचानूँ,
दृष्टि है पर तू नही दृष्टिगोचर,
महादृष्टि दो तुझे देख पाऊँ,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।
जग के संताप हरो तभी तुम्हे सम्मानूँ।
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